________________
..
*प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
[ २८७
(१) महार्णवसमाः सदृत्याः = महराणव-समासहिश्रा ।। (२) यदा ते सहृदयः गृह्यन्तै जाला ते महिला हिं घेप्पन्ति ।। ( ३) निशमनार्पित हृदयस्य हृदयम-निसमगुपिना-हिनारस हिअर्थ ।।
किसलयम संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप किसलं और किसलयं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में मूत्र-संख्या १-२६६. से स्वर महित 'य' का अर्थात संपूर्ण 'ब' व्यन्जन का विकल्प से लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन मं अकारांन नपुम कलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति
और १-६३ से प्राप्त म' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप किसलं मिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२६६ से वैकल्पिक पक्ष में 'य' का लोप नहीं होकर प्रथम रूप के समान ही शेष साधनिका से द्वितीय रूप किसलयं भी सिद्ध हो जाता है।
कालायसम संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप कालासं और कालायर्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२६६. से स्वर सहित 'य' का अर्थात् संपूर्ण 'य' व्यञ्जन का विकल्प से लोए; ३-१५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त जसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की पारित और १-२३ से प्राप्त 'म का अनुस्वार होकर प्रथम रूप कालासं सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-२६६ से वैकल्पिक पक्ष में 'य' का लोप नहीं होकर प्रथम रूप के ममान ही शेष साध. निका से वित्तीय रूप कालायसं भी सिद्ध हो जाता है।
महार्णव-समाः संस्कृन रूप है। इसका प्राकृत रूप महएणव-समा होता है। इसमें सूत्र संख्या १.८४ से दीर्घ स्वर प्रथम 'या' के स्थान पर हस्वर 'अ' की प्राप्ति; -GE से 'र' का लोप; २.८६ से 'ण' को द्वित्व 'रण' की प्राप्ति;३.४ ले प्रथमा विक्ति के बहु वचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त होकर लुप्त हुए 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हुस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'श्रा' की प्राप्ति होकर महष्णव-समा रूप सिद्ध हो जाता है।
सहृदया. संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप सहिया होता है। इनमें सूत्र संख्या १-१२८ से '' का 'इ'; {-७७ से 'द्' का लोप; १-२६६ से स्वर महित 'य का विकल्प से लोष; ३-४ से पथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३- २ मे प्राप्त होकर लुरत 'जस' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हुस्व स्वर"अ', को दीर्घ स्वर "प्रा', की प्राप्ति होकर सहिमा रूप सिद्ध हो जाता है।
यदा संस्कृत अव्यय है । इसका प्राकृत रूप जाला हाना है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज'; ३-६५ से कालवाचक संस्कृत प्रत्यय दा के स्थान पर 'आला' प्रत्यय को प्रानि होकर जाला रूप सिद्ध हो जाता है।
ते संस्कृत सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप भी 'ते' ही होता है । यह रूप मूल सर्वनाम 'तद्'