________________
* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
[ २६१
आवर्तमानः संस्कृत वर्तमान कृदन्त का रूप है । इसके प्राकृत रूप अत्तमायो और श्रावत्तमोणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-८४ से यादि दोघ घर 'आ' को 'अ' को प्राप्ति; १-२७१ से अन्तर्वर्ती सस्वर 'व' का विकल्प से लोग, २-७६ से 'र' का लाप; -८ से 'न' को द्विख 'क्त' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण और ३-२ से पथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुस्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप अत्तमाणो सिद्ध हो जाता है। द्वितोय रूप में बैंक लेपरू पक्ष होने से राव-संख्या ५-२७१ का अभाव जानना और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान होकर द्वितीय रूप अ वत्तमाणो भी सिद्ध हो जाता है।
अषटः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप अडो और अपना होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२७१ से अन्तर्वी सस्वर 'व' का अर्थात संपूर्ण 'व' व्यकजन का विकल्प से लोप; १-१६५ से 'ट' का 'ड' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक व वन में अकारान्त पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को की प्राप्ति होकर क्रम से अडो और अवडो दोनों की सिद्धि हो जाता है।
प्राधारकः संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप पारश्रो और पावार भी होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या २- से प्रथम 'र' का लोप; १-२७१ से अन्तर्वर्ती मस्वर 'का' का विकल्प से लोप; १-१५७ से दोनों रूपों में 'क' का लोप और ३-२ से प्रश्रमा विमक्ति के एक यवन में अकारान्त पुलिंजग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर कम से पारओ और पाचारओ कारों की सिद्धि हो ज ली है।
देव कुलम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकून रूप दे-उलं और देव-जल होते हैं । इनमें मूत्र-मच्या १-७१ से अन्तर्वर्ती सस्वर 'व' का अर्थात् सम्पूर्ण 'य' व्याजन का विकल्प से लाप, १-१5 में 'क' का दोनों रूपों में लाप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'पि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कम से वे-उलं और वृष-मुलं दोनों रूपों को सिद्धि हो जाती है।
एवमेव संस्कृत अध्यय है। इसके : कृित रूप एमेव और एवमेव होते हैं। इनमें मूत्र-संख्या ५-२७१ से अन्तर्वर्ती (प्रथम) सम्बर 'व' का अर्थात् संपूर्ण 'व' व्यञ्जन का विकल्प से लोप होकर क्रम से एमर और एलभेष दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है ॥ १-२७१ ।।
इत्याचार्य श्री हेमचन्द्र-विरचित्तायां सिद्ध हेमचन्द्राभिधानस्थोषज्ञ शब्दानुशासन वृत्ती
अष्टमस्थाध्यायस्य प्रथमः पादः ।। इस प्रकार प्राचार्य श्री हेमचन्द्र महाराज द्वारा रचित 'सिद्ध हेमचन्द्र नामावली और ख-कृत कावली शब्दानुशासन रुप व्याकरण के पारवें अध्याय रूप प्राकृत-व्याकरण का प्रथम पाद (प्रथम परम) पूर्ण हुश्रा ।।