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*प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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मह्यम् संस्कृत मर्वनाम 'अस्मद् का चतुय॑न्त रूप है । इमका रूप मज्म होता है । इसमें सूत्र मंख्या २.२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्य के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व झझ' की प्राप्ति; २..० से प्राप्त पूर्व 'भा' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति और ।-२३ में अन्त्य हलन्त 'म्' का अनुस्वार होकर मझं रूप सिद्ध हो जाता है । - गुह्यम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप गुज्झ होता है । इसमे सूत्र-संख्या २-२६ से संयुक्त व्यञ्चन ह्य के स्थान पर 'क' की प्राप्तिः २८ से प्राप्त 'भ' को द्वित्वं 'झ' की प्राप्ति, २.९० से प्राप्त पूर्व झ' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रश्रमा विभक्ति के एक बचन मे अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर गुज्झं रूप सिद्ध हो जाता है।
माति संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का म.प है । इसका पाकृत रूप रणमा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' का 'ग'; २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन '' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति २-८ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व ' म' की प्रामि; २-६० से प्राप्त पूर्व 'झ' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; और ३-६३६ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पणज्झाइ रूप मिद्ध हो जाता है। .
वजे वा ॥२-२७॥ ध्वज शब्दे संयुक्तस्य भो या भवति ॥ झो धो ।।
अर्थः- 'बज' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'च' के स्थान पर विकल्प से 'झ' होता है । जैसे:-ध्वजः-झओ अथवा धाम
ध्यजः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप झनो और धथी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या २-२७ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्व' के स्थान पर विकल्प से 'झ' की प्राप्तिः १-१७७ से 'ज' का लोप
और ३-२ से प्रथमा विमक्ति के एक बचन में अकारान्त पुस्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप झओ सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप धयों में २-७६ से 'ब' का लोप और शेष तानिका प्रथम रुप के समान ही होकर द्वितीय रूप धो भी सिद्ध हो जाता है। ॥२-२७ ॥ ।
इन्धौ मा ॥२-२८ ।। . इन्धी धाती संयुक्तस्य झा इत्यादेशो भवति ॥ समिज्झाइ । विल्झाइ ।। 5. अर्थः–'इन्ध' धातु में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'न्यू ' के स्थान पर 'झा' का आदेश होता है ।