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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित :
लोप होकर कई रूप सिद्ध हो जाता है । यहाँ पर 'कइ' रूप ममास-ात होने से विभक्ति प्रत्यय का लोप हो गया है।
निरूपितम संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप निरूथिनं होता है । इस में सूत्र-संख्या ५-२३१ से 'प' का ब'; १-१७७ से 'त' का लोक ३-२५ से प्रथमा बिनक्ति के एक वचन में अकारांत नपुंसक जिग में संस्कृत प्रत्यय 'सि के स्थान पर प्राकन में 'म्' प्रत्यय की पापि; और १.२३ से प्रान 'म्' का अनुस्वार होकर निरूविौ रूप सिद्ध हो जाता है । १२ ४० ।
श्रद्धद्धि- मूर्षिन्ते वा ॥२-४१ ॥ एषु अन्ते वतमानस्य संयुक्तस्य दो का भवति ॥ सड्डा । सद्वा । इड्डी रिद्धी । मुण्डा ! मुद्धा । अड्डे अद्ध॥
अर्थः- संस्कृत शब्द श्रद्धा, श्वद्धि, मू और अध में अन्त में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'द्ध' के स्थान पर अयया च' के मान पर. विलय से 'द' को प्राति होती है । तदनुसार संस्कृन रूपांतर से प्राप्त माकृत रूपान्तर में इनके दो दो रूप हो जाते है । जोकि इन प्रकार हैं:-प्रदा पड़ा अथवा सद्धा चद्धिःइडी भश्रवा रिन्दी । मूर्धा- मुण्ढा अथवा मुद्रा और अर्धम्= पाडू अथवा श्रद्धं ।
श्रद्धा संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप मड़ा और सद्धा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या २-१ से 'र' का लोप; १-२६० से शेष 'श' का 'स';"-४१ से अन्त्य संयुक्त व्यन्जन 'द' के स्थान पर विकल्प से 'द' की प्राप्ति; २-६६ से प्राप्त 'ढ' का द्वित्व 'दृ' को प्राप्ति और २६. से प्राप्त पूर्व 'र'को 'ड' की प्राप्ति हो कर प्रथम रूप सइदा सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप की सिदि सूत्र- संख्या -१२ में की गई है।
कविः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप इट्टी और गिद्धी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रमख्या १-१३१ से '' के स्थान पर 'इ' को प्रालि २-२१ से अन्त्य संयुक्त व्यन्जन 'द्ध' के स्थान पर विकाप से 'ढ' को राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'द' को द्वित्व हा की प्राप्ति २.६० से प्राप्त पूर्व 'द' को 'ह' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रयमा विभक्ति के एक वचन में हस्व हकारात स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य हुस्वस्वर 'ई' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्रारित होकर प्रथम रूप दही सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप रिद्धी की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१८ में की गई है।
अर्धा संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप मुण्ढा और मुडा होते है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या १-२४ से दीर्घ स्वर '3' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; १-२६ से प्रथम स्वर 'ज' के पश्चात् मागम रूप अनुस्वार की प्राप्ति, २-४१ से अन्त्य संयुक्त व्यजन '' के स्थान पर विकल्प से 'द' की प्राप्ति और १-३- से श्रागम रूप से प्राप्त अनुस्वार के अागे 'द' होने से ट धर्म के पञ्चमोतर रूप