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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित
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__ अभिमन्युः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत में तीन रूप होते हैं:- हिमज्जू, अमित और अहिमन्नू ।। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-५८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-२५ से संयुक्त व्यन्जन 'न्य' के स्थान पर विकल्प से 'ज' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'जको द्वित्व 'ज' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उफारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य द्वस्व स्वर 'उ' को दीघ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप अहिमज्जू सिद्ध हो जाता है।
द्वित्तीय रूप में सूत्र-संख्या १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-२५ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्य के स्थान पर विकास ले अ' की सि, और प्रथमा विभागिय के एक वरन में प्रथम रूप के समान ही सानिका की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप अहिमत भी सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप अहिमन्नू की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४३ में को गई है।
मन्युः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मन्नू होता है । इसमें सूत्र संख्य २.४८ से 'य' का लोप; २-८६ से रह हुए 'न' को द्वित्व 'न्न्' की प्राप्ति; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर की प्राप्ति झेकर भन्न रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-२५ ॥
साध्वसन्ध्य-ह यां-भः ॥२-२६॥
साध्वसे संयुक्तस्य ध्य-हययोश्च झो भवति ।। सज्झर्स ।। ध्य। वज्झए । भाखं । उवभाओ। सज्मात्री समझ विमो हिय । सज्मो मज्म ।। गुज्झ । र ज्झइ ।
अर्थ:-'साध्वम' शान में रहे हुए संयुक्त व्यजन 'व' के स्थान पर 'झ' को प्राप्ति होती है। जैसे:-माघसम्-सजसं । इसी प्रकार जिन शब्दों में संयुक्त ज्यजन 'भ्य' होना है अथवा 'ह्य होता है; सो इन संयुक्त व्यजन 'ध्य' के स्थान पर और 'ह्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति होती है । जैस:-'ध्य' के उदाहरण इस प्रकार है:-वभ्यते वझर । ध्यानम्-झाए । उपाध्यायः-उबझाओ ! स्वाध्यायः सम्झायो। साभ्यम् - सज्झं और विंध्या=विझो । 'ह्य' के उदाहरण इस प्रकार :- मह यः-सझो । महा = मझ। गुह्यम् गुज्झ और नाति–णझर इत्यादि ।।
साखसम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मझम होना है। इसमें सूत्र-संख्या ४ से दीर्घस्वर 'या' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-२६ से संयुक्त म्यजन ८' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २-१ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'म झ' की प्राप्ति; २० से प्राप्न पूर्व ' को 'ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' को अनुस्वार होकर सासं रूप सिद्ध हो जाता है।