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* प्राकृत व्याकरण *
- भार्या संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत में वैकल्पिक रूप भारिश्रा होता है। इसमें सूत्र-संख्या६-१-७ से संयुक्त व्यजन 'य' के '२' में 'इ' को Fili, और ६.१५४ से ' को हो मारिआ रूप सिद्ध हो जाता है।
सज्ज और सज्जं दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-१८७ में की गई है।
पर्यायः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पज्जाश्रो होता है। इसमें मूत्र-संख्या २.२४ से संयुक्त रन्जन 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज' की प्राप्ति; १-१७७ मे द्वितीय 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन मे अकारान्त पुल्लिंग में मि' प्रत्यय के स्थान पर ‘ो ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पज्जाको रूप सिद्ध हो जाता है।
· पर्याप्तम् संस्कृत रूप है। इसघा प्राकृत रूप पज्जत्त होता है। इस में सुत्र संख्या २.५४ से संयुक्त व्यन्जन 'ये' के स्थानपर 'ज' की प्राप्ति; .८ से प्राप्त 'ज' को द्वित्त्र 'जज' की प्राप्ति, १.८४ से दोघस्वर 'प्रा' के स्थानपर 'अ' की प्राप्ति; २-७७ से द्वितीय हलत 'प् का लोप; २.८६ से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पज्जतम् रूप सिद्ध हो जाता है।
मर्यादा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मज्जाया होता है । इस में सूत्र-संख्या -२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'X' के स्थान पर 'ज' की प्रामि २-८६ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज की प्राप्ति; १-१७७सेच का लोप और १-१८० से लोप हुए 'द' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति होकर मजाया रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-२४॥
अभिमन्यौ ज-जो वा ।। २-२५ ॥ अभिमन्यो संयुक्तस्य जो जश्च वा भवति ।' अहिमज्जू । अहिमज । पचे अहि मन्नू ॥ अभिग्रहणादिह न भवति । मन्नू ॥
अर्थ:-'अभिमन्यु' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यजन 'न्य' के स्थान पर विकल्प से 'ज' और 'ख' की प्राप्ति होती है । इस प्रकार 'अभिमन्यु' संस्कृत शब्द के प्राकृत रूप तीन हो जाते है जो कि इस प्रकार हैं:-अभिमन्युः अहिमज्जू अथवा अहिमब्जू अथवा अहिमन्नू ॥ मूल-सूत्र में 'अभिमन्यु लिखा हुआ है। अत: जिस समय में केवल 'मन्यु' शब्द होगा; अर्थात् 'अभि' उपसर्ग नहीं होगा; तब 'मन्यु' शब्द में रहे हुए संयुक्त ध्यजन 'न्य' के स्थान पर सूत्र-संख्या २-२५ के अनुसार क्रम से 'ज' अथवा 'ब्ज' की प्राप्ति नहीं होगी। तात्पर्य यह है कि 'मन्यु' शब्द के साथ में 'अभि' उपसर्ग होने पर ही संयुक्त व्यञ्जन 'न्य' के स्थान पर 'ज' अथवा 'ज' की प्राप्ति होती है; अन्यथा नहीं । जैसे:मन्युः मन्नू॥