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प्राकृत व्याकरण *
शब्दों में संयुक्त व्यस्खन त के होने पर भी उनमें सूत्र संख्या २-३० के विधान के अनुसार 'द' को प्राप्ति नहीं होती है । बहुलाधिकार से किसी किसी शरद में दोनों विधियाँ पाई जाती हैं । जैसे 'वार्ता का 'घट्टा' और 'वत्ता' दोनों रूप उपलब्ध हैं । यो अन्य शब्दों के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिये ।।
कैवर्तः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप घट्टो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४८ से ऐ के स्थान पर 'र' की रित; २.६८ से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २.८८ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वथन में अकारान्त पुल्लिंग में fम' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर के पट्टी रूप सिद्ध हो जाता है ।
वर्तिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप घट्टी होता है। इसमें सूत्र-मंख्या :-३० से संयुक्त व्यसन 'त' के स्थान पर 'द की प्राति -८ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व '४' की प्राप्ति; और ३-१६ से प्रथमा विभक्त्ति के एव. वचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में सिंहाय के स्थान पर अन्य हरव स्वर 'इ को दार्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर पट्टी रूप सिद्ध हो जाता है।
जतः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप जो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३० से संयुक्त व्यसन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-8 से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बयान मे अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जट्टो रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रवर्तते संरवृत अकर्मक किया पद का रूप है । इसका प्राकृत रूप पयट्टइ होता है। इसमें सूत्रसंख्या २-६ प्रथम 'र' का लोप: १-१४४ से 'व.' का लोप; १-१८० से लोप हुए '' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; २-३० से संयुक्त व्याजन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'ट्ट की प्राप्ति; और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पयह रूप सिद्ध हो जाता है।
पर्नुलम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप वट्टल होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३० से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; - से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'ह' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विमक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त म्' का अनुस्वार होकर पददुलं रूप सिद्ध हो जाता है।
राज-धातकम संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप गयवट्टयं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१५७ से 'ज' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-८४ से 'वा' में स्थित दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; २-३० से संयुक्त व्यञ्जन '' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति; १-८८ से 'ति' के स्थान पर पूर्वानुसार प्राप्त ट्टि में स्थित 'इ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क' में से शेष