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* प्राकृत व्याकरण *
'ट' का श्रादेश और २-६६ से प्राप्त 'ट' को द्वित्त्व '' की प्राप्ति होकर वट्टा रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-३ ॥
... वृन्ते रदः ॥२-३१॥ .. श्रन्ते संयुक्तस्व एटो भवति ।। वेण्ट । ताल वेण्टं ॥... को .
अर्थः-वृन्त शब्द में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'न्त' के स्थान पर 'ट' की प्रालि होता है । जैसे - वृन्तम्-येण्द और ताल-वृन्तम्-ताल-वेण्टं ||
वेण्ट रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३६ में की गई है। - ताल-पेण्ट रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ?-६७ में की गई है। ।२३१ ॥
ठो स्थि-विसंस्थुले ॥२-३२ ॥ - अनयोः संयुक्तस्य ठो भवति ।। अट्ठी । विसंठुलं ॥
अर्थः-अस्थि और विसंस्थुल शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्या-जन 'स्य' के स्थान पर '' की प्राप्ति होती है । जैसे:-अस्थिः अट्ठी और विसंस्थुलम् विसंतुलं ।।
अस्थि: संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप अट्ठी होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३० से संयुक्त व्यञ्जन 'स्थ' के स्थान पर ठ की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ळ' की प्रामि; २-६० से प्राप्त पूर्व '' को 'द' की प्रारित और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्र इकारान्त स्त्रो लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्ष पर 'ई' को प्राग्नि होकर अट्ठी रूप सिद्ध हो जाता है।
विसंस्शुलम संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप विसंतुल होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३२ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्थ' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर विसंतुलं रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-३२॥
स्त्यान-चतुर्थार्थे वा ॥२.३३॥ एषु संयुक्तस्य ठो वा भवति ॥ ठीणं थी : चउट्ठी । अट्टो प्रयोजनम् । अत्थो धनम् ।।
अर्थ:-'स्त्यान' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यन्जन 'स्त्य' के स्थान पर विकल्प से 'ठ' की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से 'चतुर्थ' एवं 'अर्थ' में रहे हुए संयुक्त व्यजन '' के स्थान पर भी विकल्प से '' की प्राप्ति होती है, जैसे:-स्त्यानं ठीण अथवा थीणं ॥ चतुर्थः-चट्ठो अथवा चउत्थी ।।