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'न' का 'ण'; ३-६५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में ऋकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पवत रूप सिद्ध हो जाता है ।
* प्राकृत व्याकरण
संवर्तनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप संरक्षण होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७३ से ' र ' का लोए; २-८६ से 'ल' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; १-२२५ से 'न' का 'ण'; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर संवत्तर्ण रूप सिद्ध हो जाता है।
आवर्तकः संस्कृत विशेष रूप है। इसका रूप
होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप २०८ से 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राि होकर आवत रूप सिद्ध हो जाता है ।
निवर्तकः संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसका प्राकृत रूप निवत्त होता है। इसमें सूत्र- संख्या २.७६ से 'र' का लोप; २-८६ से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १-१७७ से 'कू' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निवृत्त रूप सिद्ध हो जाता है ।
निर्वतर्कः संस्कृत विशेषण है । इसका प्रकृत रूप निव्वत्तश्र होता है। इसमें सूत्र संख्या २७६ से 'व' पर स्थित 'र' का तथा 'त' पर स्थित 'र' का - दोनों का लोप २-८६ से 'व' का द्वित्व तथा 'त' का भी द्वित्व; दोनों को द्वित्व की प्राप्तिः १-७७ से 'क' लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निव्यत्त रूप की सिद्धि हो जाती है ।
प्रवर्तकः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पत्रत होता है। इसमें सूत्र - संख्या २-७६ से 'प' में स्थित 'र' का और 'त' पर स्थित 'र' का दोनों 'र' का -लोपः २८६ से 'त' का द्वित्व 'त'; १- १७७ से 'कू' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर यवत्त रूप सिद्ध हो जाता है ।
संवर्तकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप संशय होता है। इस में सूत्र संख्या २२७६ से 'र' का लोप २-८६ से 'त'को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'थो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संपत्त रूप सिद्ध हो जाता है।
वर्तिका संस्कृत रूप है । इस का प्राकृत रूप वशिश्रा होता है। इसमें सूत्र संख्या २७६ से 'र' का लोप; २-८६ से 'त' को द्वित् 'त' की प्राप्ति और १-१७७ से 'कू' का लोप हो कर पत्तिया रूप सिद्ध हो जाता है।