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* प्राकृत व्याकरण *
उस समय में प्राकृत-रूपान्तर में 'क्षमा' में स्थित्त 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होगी; और जब 'क्षमा' शब्द का अर्थ सहन-शीलता यान क्षान्ति होता है; तो उस समय में 'क्षमा' शब्द में रहे. हुन 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति होगी । इस तात्पर्य-विशेष को बतलाने के लिए हो सूत्र-कार ने मूल-सूत्र में 'को' शब्द को जोड़ा है-अथवा लिखा है। जैसे:-क्षमा=(क्षान्तिः ) खमा अर्थात सहन-शोलता ||
क्षमा (पृथिवी ) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप छमा होना है इसमें सूत्र-संख्या-२-१८ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होकर छमा रूप सिद्ध हो जाता है।
क्षमा (पथिवी ) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप छमा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८ से हलन्त और संयुस्त व्यक जन 'च' के स्थान पर हलन्त छ' की प्राप्ति; २-१०१ से प्राप्त हलन्त 'क' में 'अ' स्वर की प्राप्ति होकर छमा रूप सिद्ध हो जाता है ।
क्षमा-(शान्ति ) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप खमा होता है । इसमें सूत्र-संख्या-२-३ से संयुक्त व्यन्जन 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति होकर खमा रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१८ ॥
ऋक्ष वा ॥ २-१६ ॥ ऋक्ष शब्दे संयुक्तस्य लो वा भवति ॥ रिच्छं । रिक्वं । रिच्छो । रिक्खो ॥ कथं छुट क्षिप्तं । वृक्ष-शिमयो रुक्ख-छूती ( २-१२७ ) इति भविष्यति ॥
अर्थ:-ऋक्ष शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'च का विकल्प से 'छ' होता है । जैसे:-प्रतम्-रिकछ अथवा रिक्खं ।। ऋक्षः रिच्छो अथवां रिक्खो ।
प्रश्नः- क्षिरम विशेषण में रहे हुए स्वर सहित संयुक्त व्यञ्जन क्षि के स्थान पर 'कू' कैसे हो जाता है ? एवं क्षिप्तम्' का 'हृढ' कैसे बन जाता है ?
उत्तर:-सूत्र-संख्या २-१२७ में कहा गया है कि 'वृक्ष' के स्थान पर 'रुक्ख' आदेश होता है और "तित' के स्थान पर 'कृढ' आदेश होता है । ऐसा उक्त सूत्र में आगे कहा जायगा ।।
ऋक्षमः-संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप रिच्छे और रिनखं होते हैं । इसमें सूत्र-संख्या १-१४, से '' की 'रि' प्रथम रूप में २-१६ से 'क्ष' के स्थान पर विकल्प से 'छ'; २.८४ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ छ' की प्राप्ति; 2 से प्राप्त पूर्व 'छ' को 'च' की प्राप्ति; ३-२५ से पथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप रिच्छ सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सुत्र-संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २.८६ से प्राप्त 'ख' को द्वित्य 'ख' की; २०६० से प्राप्त पूर्व 'ग्व' को 'क' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप रिक्वं सिद्ध हो जाता है।