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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
अनयोः संयुक्तस्य चो भवति ।। किच्ची । चच्चरं ।।
अर्थ:-- कृत्ति शब्द में रहे हुए संयुक्त ध्यजन 'त' स्थान पर 'च' की प्राप्ति और 'चत्वर' शब्न में रहे हुए संयुक्त व्यजन 'त्य' के स्थान पर भी 'च' की प्राप्ति होती है। जैसे:-कृत्तिः किमची और च वरम्-चञ्चरं ।।
कृत्तिः-संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर किकवी होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'द की प्राप्ति; २-१२ से संयुक्त व्यन्जन 'श' के स्थान पर 'च' को प्राप्ति; २-4 से मात्र 'ध' को द्वित्व ब; ३.१. से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त स्त्रीलिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हरुन स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर किवी रूप सिद्ध हो जाता है।
घरपरम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप चवरं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१२ से संयुक्त ज्यजन 'त्व' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'च';३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर चच्चरं रूप सिद्ध हो जाता है ॥ २-१२ ।।
त्योऽचैत्ये ।। २.-१३ ॥ चैत्यवर्जिते त्यस्य चो भवति ।। सच्चं । पञ्चश्रो ।। अचैत्य इति किम् । ना ॥
अर्थ-चैत्य शब्द को छोड़कर यदि अन्य किसी शब्द में संयुक्त व्यजन त्य' रहा हुभा हो तो उस संयुक्त व्यन्जन 'त्य' के स्थान पर 'च' होता है । जैसे:-सत्यम् समचं । प्रत्ययः-पच्ची इत्यादि ।।
प्रश्न: चैत्य में स्थित 'त्य' के स्थान पर 'च' का निषेध क्यों किया गया है ? ... उत्तर:-- क्योंकि चैत्य' शब्द का प्राकृत रूपान्तर चइ उपलब्ध है-परम्परा से प्रसिद्ध है; अतः चैत्य में स्थित 'त्य के स्थान पर 'च' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:-चैत्यम् चइत्तं ।
सत्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सच्च होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१३ से संयुक्त व्यजन 'त्य' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति २.८८ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'कच' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रश्रमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर सच्च रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रत्यय संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूपान्तर पाची होता है। इसमें सूत्र-मंख्या २-४ से 'र' का लोप; २-१३ से 'स्य' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'च्च' की प्राप्ति, ५--१४७ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पच्चो रूप सिद्ध हो जाता है।