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* प्राकर सिरप
स्तम्भ्यते संस्कृत कर्मणि क्रियापद का रूप है । इसके प्राकृत रूप थम्भिज्जइ और ठम्भिज्जड होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-से 'स्त' का विकल्प से 'थ'; ३-१६० से संस्कृत कमणिप्रयोग में प्राप्त 'य' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'हज प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल के एक बचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप थम्भिज्जइ सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में उसी सूत्र-संख्या २.६ से 'स्त' का विकल्प से 'ठ' और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप ठम्भिज्जइ भी सिद्ध हो जाता है । ।। २-६ ।।
रस्ते गोवा ॥२-१०॥ रक्त शब्दे संयुक्तस्य गो का भवति ।। रग्मी रतो ।
अर्थः -रक्त शाला में रहे हए संयुक्त व्यजन क्त के स्थान पर विकल्प से 'ग' होता है । जैसे:रक्तः रग्गा अथवा रत्ता ॥ रक्तः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप रम्मो और रत्ती होने हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१० से 'क्त' के स्थान पर विकल्प से 'ग' की प्रापि; २.८६ से प्राप्त 'ग' को द्वित्व 'मा को प्राति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्रश्रम रूप रग्गो सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-७७ से 'क' का लोप; २-८ह से शेष 'त' को द्वित्व 'त्त की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही शेकर रत्तो रूप सिद्ध हो जाता है । ॥२-१०॥
शुलो ङगो वा ।।१-११।। शुल्क शब्दे संयुक्तस्य को वा भवति ।। सङ्ग' सुकं ॥
अथ:--'शुल्क' शहद में स्थित संयुक्त व्यञ्जन रक' के स्थान पर विकल्प से 'ङ्ग' को प्रामि होती है और इससे शुल्क के प्राकृत-रूपान्तर में दो रूप होते है। जो कि इस प्रकार है:-शुल्कम्सुङ्ग और सुक्कं ||
शुल्कम संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप सुङ्ग और मुन्न होते है । इनमें से प्रथम रूप में सूत्रमंख्या १-०६० से 'श' का 'स'; २-११ से 'ल्क' के स्थान पर विकल्प से 'ग' की प्राप्ति; ३.५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'मि प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और ६.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुम्बार होकर प्रथम रूप 'सुङ्ग' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप सुन में सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; २-७६ से 'ल' का लोप; २-८ से शेष रहे हुए 'क' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति और शेष माधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप सुक्कं भी सिद्ध हो जाता है | -११ ॥
कृति- चत्वरे वः ॥ २-१२ ॥