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प्राकृत व्याकरण *
की प्राप्तिः ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृत के समान ही 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर विज रूप सिद्ध हो जाता है ।
बुज्झा रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है.
अनन्यक-गामि मंस्कृत ताद्धत संबोधन रूप है । इसका प्राकृत रूप अणएण्य-गामि होता है । इसमें सूत्र संख्या-१-२२८ से दोनों न' के स्थान पर दो 'ण' की क्रम से प्राप्ति; २.७८ से य' का लोप; - से द्वितीच 'ण' को द्वित्व 'णण' की प्राप्ति, १-१७७ से 'क' का लोपः १-१८० से शेष रहे हुए 'श्र को 'य' की प्राप्ति; २-१७ से 'ग को द्वित्व 'ग' की प्राप्ति और ३-.२ से संबोधन के एक वचन में दाघ कारान्त में हम्व इकारान्त की प्राप्ति होकर भणण्ण-ग्गामि रूप सिद्ध हो जाता है ।
त्यक्षा संस्कृत कृदन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप चइरा होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-८१ से 'त्यक संस्कृत धातु के स्थान पर 'चय' आदेश की प्राप्ति; ४-२३६ से धात्विक विकाण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; १-९७७ से 'य' का लोप; ३.९५७ से लोप हुए 'य' में से शेप बने हुए धान्धिक विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति, और २-१४६ से में कृत कदन्त प्रत्यय 'बा' के स्थान पर 'पूण' प्रत्यय की प्राप्ति एव' ५-१४४ से 'त्' का लोप होकर चहउण रूप सिद्ध हो जाता है।
पः संस्कृत द्वितीयान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप तर होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'य'; ३-५ से द्वितीया विभ.क्त के एक वचन में अकारान्त में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर नवं रूप सिद्ध हो जाता है ।
कर्तुम संस्कृत हेत्वर्थ कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूर काउं होता है। मूल संस्कृत धातु 'क' है। इसमें सूत्र-संख्या १.६२६ से 'शू' का श्र'; ४-२१४ से प्राप्त 'श्र को 'श्रा' की प्राप्ति; १-१७७ से संस्कृत हेत्यर्थ कृदन्त में प्राप्त 'तुम' प्रत्यय के 'त्' का लोप और १.२३ से अन्त्य 'म् का अनुस्वार होकर काउं रूप सिद्ध हो जाता है। अथवा ४-२१४ से 'अ' को 'या' की प्राप्ति; २-७६ से 'र' का लोप; और १-२३ से अन्त्य 'म्' को अनुस्वार होकर का रूप सिद्ध होता है ।
शान्तिः संस्कृत प्रथमान्त रूप है इसका प्राकृत रूप सन्ती होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १.८४ से 'श्री' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; और ३-१६ से प्रथमा विक्ति के एक पचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्त्र खर 'इ' को दीर्घ स्वर ई' की प्राप्ति होकर सन्ता रूप सिद्ध हो जाता है।
प्राप्तः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप पत्तो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से २५ का लोप; १-८४ से 'श्रा' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; २-७७ से द्वितोय 'ए' का लोप; .२-८८ से शेष 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर पत्तो रूप सिद्ध हो जाता है।