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* प्राकृत व्याकरण *
पादान्त मंगलाचरण
यद् शेर्मण्डल कुण्डली कृत धनुर्दण्डेन सिद्धाधिप !
श्री वैदिकुलात् लगा कि गलत् कुन्दावदातं यशः ।।
भ्रान्त्वा त्रीणि जगन्ति खेद-विवरां तन्मालवीनां व्यधादापाड तनमण्डले च धक्ले गण्डस्थले च स्थितिम् ॥
अर्थ :- हे सिद्धराज ! आपने अपने दोनों सुज इण्डों द्वारा गोलाकार बनाये हुए धनुष की सहायता से, खिले हुए मांगरे के फूल के समान सुन्दर एवं निर्मल यश को शत्रुओं से ( उनको हरा कर ) खरीदा है - (एकत्र किया है) उस यश ने तीनों जगत् में परिभ्रमण करके अन्त में थकावट के कारण से विवश होता हुआ मालब देश के राजाओं की पत्नियों के ( अंगराग नहीं लगाने के कारण से ) फीके पड़े हुए स्तन मण्डल पर एवं सफेद पड़े हुए गालों पर विश्रांति महण की है। आचार्य हेमचन्द्र ने मंगलाचरण के साथ महान् प्रतापी सिद्धराज की विजय-स्तुति भी श्रृंगारिक ढंग से प्रस्तुत कर दी हैं। यह मंगलाचरण प्रशस्ति-रूप है; इसमें यह ऐतिहासिक तत्त्व बतला दिया है कि सिद्धराज ने माल पर चढ़ाई की थी, वहाँ के नरेशों को बुरी तरह से पराजित किया था एवं इस कारण से राज-रानियों ने श्रृंगार करना और श्रंग राग लगाना छोड़ दिया था; जिससे उनका शरीर एवं उनके अंगोपांग फीकेफीके प्रतीत होते थे; तथा राज्यभ्रष्टता के कारण से दुःखी होने से उनके मुख-मण्डल भी सफेद पड़ गये थे, यह फीकापन और सफेदी महाराज सिद्धराज के उस यश को मानों प्रति छाया ही थी, जो कि विश्व के तीनों लोक में फैल गया था । काव्य में लालित्य और वक्रोक्ति एवं उक्ति-वैचित्र्य अलंकार का कितना सुन्दर सामञ्जस्य है ? )
'मूल सूत्र और वृति' पर लिखित प्रथम पाद संबंधी 'प्रियोदय चन्द्रिका' नामक हिन्दी व्याख्या एवं शब्द-साधनका भी समाप्त ॥