________________
* प्राकृत व्याकरण *
से बनता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से अन्स्य व्यजन 'द्' का लोप; और ३-५८ मे प्रथमा विभक्ति के बहु यचन में श्रकारान्त पुल्लिग में प्राप्त 'जस' के स्थान पर 'ए' आदेश की प्राप्ति होकर ते रूप सिद्ध हो जाता है।
___सहृदयः संस्कृत तृतोयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप महिअएहि होला है । इसमें सूत्र संख्या १.१२८ से 'ऋ' की 'ए'; १-१७७ स 'द' का लोपः १.१.५७ से ही 'य' का भी लोप, ६-१५ से लुम हुए 'य' में से शेष बचे हुए 'अ' को (अपने आगे तृतीया विभक्ति के बहु वचन के प्रत्यय होने से) 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से संस्कृत भाषा के तुनाया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यत्र 'भिम्' के स्थान पर श्रादेश प्राप्त 'ऐस्' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय को प्राप्ति होकर सहिअएहिं रूप मिद्ध हो जाता है।
गृधन्ते कर्मणि वाच्य क्रियापा का रूप है। इसका प्रारत रूप पन्ति होता है। इसमें मूत्रसंख्या ४-२५६ से 'ग्रह' धातु के स्थान पर 'घेप्प' का आदेश; और इसी मूत्र को वृत्ति से संस्कृत भाषा में कर्मणि वाच्यार्थ बोधक 'य' प्रत्यय का लोप; ४-२३६ से 'धेष धातु में स्थित हलन्त द्वितीय 'प' को 'अ' को प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के वडववन में 'न्ति' प्रत्यय फो प्राप्ति होकर प्पन्ति रूप सिद्ध हो जाता है।
निशममार्पित हृदयस्य संस्कृत समासात्मक पवयन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप निसमणुस्पिन हिअस्त होता है। इसमें सूत्र-संख्या १९६० से 'श' का 'स'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-६३ से 'ना' वर्ण में संधि के कारण से स्थित अर्पित के आदि स्वर 'अ' को 'ओं की प्राप्ति एवं १-८४ से प्राप्त इस 'ओ' स्वर को अपने ह्रस्व स्वरूप 'उ' की प्राप्ति; २-४ से 'र' का लोप; २-८८ से 'प' को द्वित्व 'प' की प्राप्ति; १-१७७ से 'न' का लोप; १-१२८ से 'ऋ' को 'इ'; १-१७७ से 'दू का लोप: १-२६६ से सर सहित संपूर्ण 'य' का लोप और ३-१० से संस्कृत में पष्ठी-विभक्ति चोधक 'स्य' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में स्स प्रत्यय की प्राप्ति होकर निस्सम गुपिअ-हिअस्स रूप की सिद्धि हो जाती है । हिअयं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है ॥ १-२६६ ।।
दुर्गादेव्युदुम्बर-पादपतन-पाद पीठन्तर्दः ।।१-२७० ।।
एषु सस्वरस्य दकारस्य अन्तर्मध्ये वर्तमानस्य लुग वा भवति ॥ दुग्गा-बी | दुग्गाएवी । उम्बरो उउम्बरो || पा-वडणं पाय-वडणं । या-वीढं पाय-बीदं ॥ अन्तरिति किम् । दुर्गा देव्यामादौ मा भूत् ॥
अर्थ:-दुर्गा देवी, उदुम्बर, पाद पतन और पाद पीठ के अन्तर्मध्य भाग में रहे हुए स्वर सहित 'द' का अर्थात् पूर्ण न्यजन 'द' का विकल्प से लोप होला है । 'अन्तर्मय-भाग' का तात्पर्य यह है कि विकल्प से होष होने वाला 'द व्यञ्जन न तो आदि स्थान पर होना चाहिये और न अन्त स्थान पर