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*प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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शृखले खः कः ॥ १-१८९i श्रृङ्खले खस्य को भवति ॥ सङ्कलं ।। अर्थ:-शृङ्गन शब्द में स्थित 'ख' व्यजन का 'क' होता है। जैसे-शधलम्:-सङ्कलं ।।
अवलम् संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप सङ्कलं अथवा संकलं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'श्र' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' का 'स'; १.३० और १-२५ से 'छ' त्र्य जन का विकल्प से अनुस्वार अथवा यथा रूप की प्राप्ति; १-१८६ से 'ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सङ्कलं अथवा संकलं रूप सिद्ध हो जाता है। ॥ १-१८६ ॥
पुन्नाग-भागिन्योगों मः॥१.१६० ॥ अनयोगस्य मो भवति ।। पुनामाई वसन्ते । मामिणी ॥
अर्थ:-पुभाग और भागिनी शब्दों में स्थित 'ग' का 'म' होता है। जैसे पुन्नागानि-पुन्नामाई ॥ भागिनी =भामिणी ।।
युन्नागानि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुनामाई होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१६० से 'ग' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; ३-२६ से प्रथमा विभक्ति के बहु-वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'जस' प्रत्यय के स्थान पर 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति और श्रन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'श्रा' की प्राप्ति भी इसी सूत्र (३-२६) से होकर युनामाई रूप सिद्ध हो जाता है।
वसन्ते संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप वसन्ते होता है । इस में मूत्र संख्या ३-११ से मप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'कि' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वसन्ते रूप सिद्ध हो जाता है ।
भागिनी संस्कृत स्त्री लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप भामिणी होता है। इसमें सुत्र संख्या १-१६० से 'ग्' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण' और संस्कृत व्याकरण के विधानानुसार दीर्घ ईकारान्त स्त्री लिंग के प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्त 'मि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा तथा १-११ से शेष अन्त्य 'स्' का लोप होकर भामिणी रूप सिद्ध हो जाता है ॥ १-१६॥
छागे लः ॥ १-१६१ ॥ छागे गस्य लो भवति ॥ छालो छाली ॥ अर्थ:-छाग शब्द में स्थित 'ग' का 'ल' होता है। जैसे:-छाग:-छालो ॥ छागी छाला ।।