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સરસ્વતિષ્ણુન મણીલાલ શાહ
AREL MENDAL
[२३७
* प्रिभोदय हिन्दी व्याख्या सहित #
पट्टा रूप को सिद्धि सूत्र संख्या १-३८ में की गई है।
प्रतिज्ञा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पइरणा होता है। इसमें सूत्र संख्या २७६ से 'र्' का लोप १-७७ से 'त्' का लोप २०१२ से श के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; और २८ से प्राप्त 'ए' को द्वित्व की प्राप्ति होकर पइण्णा रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-२८६ ।।
इत्वे वेतसे ॥
१- २०७ ॥
देत से तस्य डो भवति इत्वे सति || बेडिसो || इत्व इति किम् | वेअसो || हः स्वप्नादौ [१-४६] इति इकारो न भवति इत्व इति व्यावृत्तिबलात् ॥
अर्थ:- वेतस शब्द में स्थित 'त' के स्थान पर ड' की प्राप्ति उस अवस्था में होती है; जबकि 'त' में स्थित '' स्वर सूत्र संख्या १-४६ से 'इ' स्वर में परिणत हो जाता हो । जैसे: वेतसः - बेडिसो ||
प्रश्न: - वेतस शब्द में स्थित 'त' में रहे हुए 'थ' को 'इ' में परिणत करने की अनिवार्यता का farara क्यों किया है !
उत्तरः- वेतस शब्द में स्थित 'त' का 'ड' उसी अवस्था में होगा; जब कि उस 'त' में स्थित 'प्र' स्वर को 'इ' स्वर में परिणत कर दिया जाय; तदनुसार यदि 'त' का 'ड' नहीं किया जाता है; तो उस अवस्था में 'त' में रहे हुए '' स्वर को इ' स्वर में परिणत नहीं किया जायगा। जैसेः - वेतमः येथसो | इस प्रकार सूत्र-संख्या १-४६-( इ: स्वप्नादी ) - के अनुसार 'अ' के स्थान पर प्राप्त होने वाली 'इ' का यहाँ पर निषेध कर दिया गया है। इस प्रकार का नियम 'व्याकरण की भाषा' में 'व्यावृत्तिवाचक' नियम कहलाता है । तदनुसार व्यावृत्ति के बल से' 'इत्व' की प्राप्ति नहीं होती है ।
airat : -- रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १४६ में की गई है।
वेतसः-संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप वेद्यतो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'तू' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' होकर असो रूप सिद्ध हो जाता है । ।। १-२०० ॥
गर्भितातिमुक्तके यः ॥ १-२०८ ॥
अनयोस्तस्य यो भवति ।। गन्मियो अणितयं ।। कचिश्रभवत्यवि । अहमुत्तयं ॥ कथम् रावणो । ऐरावण शब्दस्य । एरावओ इति तु ऐरावतस्य ॥
अर्थ:-- गर्मित और अतिमुक्तक शब्दों में स्थित 'त' को 'ए' की प्राप्ति होती है। अर्थात् 'त' के स्थान पर 'ए' का आदेश होता है । जैसे:- गर्भितः - गम्भिो ॥ श्रतिमुक्तकम् = श्रतियं । कमी कमी