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* प्राकृत व्याकरण *
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प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति दोनों रूपों में होकर क्रम से दिखहो और दिवसो रूपों की सिद्धि हो जाती है।॥ १-२६३ ।। .
हो घोनुस्वारात् ॥ १-२६४ ॥ अनुस्वारात् परस्य हस्य पो वा भवति ॥ सिंघो । सीहो । संघारो । संहारो । कचिदननुस्वारादपि । दाहः । दायो ।।
अर्थ:--यदि किसी शब्द में अनुस्वार के पश्चात् 'ह' रहा हुआ हो तो उप्त 'ह' का विकल्प से 'घ' होता है। जैसे:-सिंहासंघो अथवा सीहो । संहार: संघारो अथवा संहारो ॥ इत्यादि ।। किसी किसी शब्द में ऐसा भी देखा जाता है कि 'ह' वर्ण के पूर्व में अनुस्वार नहीं है तो भी उस 'ह' वर्ण का 'ध' हो जाता है। जैसे:-दाहान्दाघो ।। इत्यादि ।। सिंघो और सीहो रूपों को सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है।
संहारः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप संघारी और संहारो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६४ से विकल्प से 'ह' का 'घ' और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिरा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति दोनों रूपों में होकर क्रम से संघारो और संहारो रूपों की सिद्धि हो जाती है।
दाहः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप दाघो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६४ को वृत्ति से 'ह' का 'घ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वाघों रूप की सिद्धि हो जाती है। ॥ १.२६० ।।
षट्-शमी-शाव-सुधा-सप्तपणेष्वादेश्छः ॥ १-२६५ ॥
एषु आदेर्वर्णस्य छो भवति ॥ छट्ठो । छट्ठी । छप्पो । छम्मुहो । छमी । छायो । छुहो । छत्तिवएणो ॥
अर्थ:-पद्, शमी, शाव, सुधा और सप्तपर्ण श्रादि शब्दों में रहे हुए श्रादि अक्षर का अर्थात सर्व प्रथम अक्षर का 'छ' होता है । जैसे:--षष्ठः-ट्ठो । पष्ठी-ट्ठी ।। षट्पदा-छप्पो षण्मुखः= छम्मुहो । शमी-छमी । शायः कावो । सुधा-छुहा और सप्तपर्ण छत्तिवएणो इत्यादि ।
षष्ठः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप छटो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.२६५ से सर्व प्रथम वर्ण 'ए' का 'छ'; २-७७ से द्वितीय '' का लोप; २-८६ से शेष 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति २-६० से प्राप्त पूर्व '' को 'द' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिय में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर छटो रूप सिद्ध हो जाता है।