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सोमाली । चिलाओ। फलिहा । फलिहो । फालिहो । काहलो । लुकी । श्रवहाल । भमलो । ari | बदलो | निट्टू लो I बहुलाधिकाराच्चरण शब्दस्य पादार्थवृत्तेरेव । अन्यत्र चरणकरणं || अमरे स संनियोगे एव । अन्यत्र भ्रमरो तथा जहरं । घढरी । निट्ठ ुरो इत्याद्यपि ॥ हरिद्रा दरिद्राति । दरिद्र । दारिद्र्य | हारिद्र । युधिष्ठिर । शिथिर | मुखर | चरण | वरुणा | *.रुण | अङ्गार | सत्कार | सुकुमार । किरात । परिखा परिघ । पान्भिद्र कातर रुग्ण | द्वार । भ्रमर | जरठ | बठर । निष्ठुर |त्यादि । श्रार्षे दृवालसङ्गो इत्याद्यपि ॥
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* प्राकृत व्याकरण *
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अर्थः- इसी सूत्र में नीचे लिखे हुए हरिद्रा, दरिद्राति इत्यादि शब्दों में रहे हुए श्रमंयुक्त अर्थात् स्वरान्त '२' वर्ण का 'ल' होता है। जैसे:- हरिद्रा -हलिीः वरिद्रातिदलिदाड दरिद्रः लिहो, दारिद्रयम् मालिए; हारिद्रः=सलिदे:: युधिष्ठिरः = हुट्टिलो; शिथिर:- सिढिलो, मुखर:- मुहली; चरणः चलणोः बरुणः= यलुणो; करुणः = कलुणो; श्रङ्गारः = इङ्गालो; सत्काराः = सकालीः सुकुमारः सोमाली; किरातः = चिलाश्री; परिखा-फलिहा; परिघः फलिहो; पारिभद्रः = फालिह्दो; कातरः = काहलीः रुग्ण :- तुको; द्वारम्= श्रत्रद्दालं; भ्रमरः =भसली; जठरम् = जढलं; बटर: चढतो; और निष्ठुरा = निट्ट लो ॥ इत्यादि || इन उपरोक्त सभी शब्दों में रहे हुए असंयुक्त 'र' वर्ण का 'ल' हुआ है। इसी प्रकार से अन्य शब्दों में भी 'र' का 'ल' होता है; ऐसा जान लेना || 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से 'चरण' शब्द में रहे हुए संयुक्त 'र' का 'ल' उसी समय में होता है; जबकि 'चरण' शब्द का अर्थ 'पर' हो, यदि 'चरण' शब्द का अर्थ चारित्र वाचक हो तो उस समय में 'र' का 'ल' नहीं होगा। जैसे:- चरण करणम्चरण करणं अर्थात् चारित्र तथा गुण-संयम । इसी प्रकार से 'भ्रमर' शब्द में रहे हुए 'र' का 'ल' उसी समय में होता है; जबकि इसमें स्थित 'म' का 'स' होता हो; यदि इस 'म' का 'स' नहीं होता है तो '२' का भी 'ल' नहीं होगा | जैसे:- भ्रमरः = भमरो इसी प्रकार से बहुलं सूत्र के अधिकार से कुछ एक शब्दों में 'ए' का 'ल' विकल्प से होता है, तदनुसार उन शब्दों के उदाहरण इस प्रकार है:- जठरम् = जढरं जढलं; बठरः = बढ़रो बढलो, और निष्ठुरः = निट ठुरो निट ठुलो इत्यादि || आर्य-प्राकृत में 'द' का भी 'ल' होता हुआ देखा जाता है । जैसे:- द्वादशाङ्ग – दुयालसंगें ॥ इत्यादि ॥
हलि रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-८८ में की गई है. ।
संस्कृतकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप इलिदाइ होता है। इसमें सूत्रसंख्या १-२५४ से प्रथम एवं संयुक्त 'र' का 'ल'; २७६ से अथवा २८० से द्वितीय 'र्' का लोप; २८ से लोप हुए र् में से शेष रहे हुए 'द' का द्वित्व 'द' और ३-१६ से वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दाह रूप सिद्ध जाता है।
दारिद्रः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप लिये होता है। इसमें सूत्र संख्या - २५४ से असंयुक्त 'र' का 'ल; २२५६ से ८० से द्वितीय 'र' का लोप; २.८६ लोप हुए 'र' में से
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