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रस्पति - HEART * प्रियोदय हिन्दी व्याया
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किरिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप किडी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५१ मे र का 'ड' और ३.१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्य इस्त्र स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर किडी रूप सिद्ध हो जाता है।
__भरः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप भेड़ो होता है। इसमें मूत्र-मंख्या १-२५१ से 'र' का 'ड' और ३-२ में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर . 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भेडो रूप सिद्ध हो जाता है ॥ १-२५१ ।।
पर्याणे डा वा ॥ १-२५२ ॥ पर्याणे रस्य डा इत्यादेशो वा भवति ॥ पडायाणं । पल्लाणं ॥
अर्थः-पर्याण शब्द में रहे हुए 'र' के स्थान पर विकल्प से 'डा' का श्रादेश होता है। जैसे:-पर्याणम् = पड़ायार्ण अथवा ललाणं ॥
पर्याणम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप पडायाणं और पल्लाणं होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संग्ख्या १-२५२ से 'र'को स्थान पर 'डी' का विकल्प से आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पडायाणं रूप सिद्ध हो जाता है ।
द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या २-६८ से 'र्य के स्थान पर 'ल्ल' की प्राप्ति और शेष मिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर पल्लाणं रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-२५६ ।।
__ करवीरे णः ॥ १-२५३ ।। करवीरे प्रथमस्य रम्य णो भवति ॥ कणचीरो ।। अर्थः-करवीर शब्द में स्थित प्रथम 'र' का 'रण' होता है। जैसे: करवीर: कणवीरो ॥
करवीरः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कणवीरो होता हैं। इसमें सूत्र-संपन्या १-२५३ से प्रथम 'र' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर कणधीरो रूप की सिद्धि हो जाती हैं ।।१-२५।।
हरिद्रादो लः ॥ १-२५४ ॥ हरिद्रादिषु शब्देषु असंयुक्तस्य रस्य लो भवति ॥ हलिही दलिद्दाइ । दलिदो ' दालिद । हलिहो । जहुहिलो । सिदिलो । मुहलो । चलयो । बलुणो । कलुशो। इङ्गालो । सकालो।