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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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द्वितीय संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप बिहानो और बीश्री होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का लोप; ४-४४७ से 'व' के स्थान पर 'ब की प्रामि; १-१७७ से 'न' का लोप; १८४ से दीर्घ स्वर 'ईके स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; १-२४ - से 'य के स्थान पर द्वित्व 'जज' की विकल्प से प्रामि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बिइज्जो रूप सिद्ध हो जाता है ।
द्वितीय रूप बीओ की सिद्धि सूत्र संख्या १.५ में की गई है।
पंया संस्कृत कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप पज्जा और पेश्रा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२४८ से 'य' के स्थान पर विकल्प से द्वित्व 'ज' की प्राप्ति होकर पेज्जा रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'य' का लोप होकर पा रूप सिद्ध हो जाता है ।१-२४८।
छायायां हो कान्तौ वा ॥१.२४६ अक्रान्ती वर्तमाने छाया शब्दे यम्य हो वा भवति ।। वच्छस्स छाही । वच्छस्स छाया ! आतपाभावः । सच्छाई सच्छाये ।। अकान्नाविति किम् ।। मुह-च्छाया । कान्ति रित्यर्थः ॥
अर्थः छाया शब्द का अर्थ कांति नहीं होकर परछाई हो तो छाया शब्द में रहे हुए 'य' वर्ण का विकल्प से 'ह' होता है। जैसे:-वृक्षस्य छायो-वच्छस्सछाही अथवा बन्छस्स-छाया ॥ यहाँ पर छाया शब्द का तात्पर्य 'आतप श्रर्थात् धूप का अभाव है। इसीलिये छाया में रहे हुए 'य' वर्ण का विकल्प से 'इ' हुश्रा है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:-सच्छायम् ( छाया सहित ) सच्छाहं अथवा सच्छायं ।।
प्रश्न- 'छाया शब्द का अर्थ कांति नहीं होने पर ही 'छाया' में स्थित 'स' वर्ण का विकल्प से '' होता है ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तर:- यदि छाया शब्द का अर्थ परछाई नहीं होकर कांति वाचक होगा तो उस दशा में छाया में रहे हुग. 'य' वर्ण को विकल्प से होने वाले 'ह' की प्राप्ति नहीं होगी; किन्तु उसका 'य' वर्ण ही रहेगा। जैसे:-मुख-छाया = ( मुख की कांति । = मुह-छाया । यहाँ पर छाया शब्द का तात्पर्य कान्ति है। अतः छाया शब्द में स्थित 'य' वणं 'ह' में परिवर्तित नहीं होकर ज्यो का त्यों ही-यथा रूप में ही स्थिन रहा है।
वृक्षस्य संस्कृत षष्टयन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप यच्छस्त होता है। इममें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'थ', २-१७ से 'क्ष' का 'छ', २८६ से प्राप्त छ' को द्वित्व 'बछ' की प्रापिः २-६० से प्राप्त पूर्व 'छ' को 'च्' की प्राप्ति; और ३-१० से संस्कृत में पाठी-विभक्ति-बोधक 'स्य' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पच्छस्स रूप सिद्ध हो जाता है।