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* प्राकृत व्याकरण -
लोप; २-८८ से 'क' का द्विश्व 'क' की प्राप्ति; १-२५४ से 'र' का 'ल'; और इ.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सकफाला रूप सिद्ध हो जाता है !
सोमालो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७१ में की गई है। चिलाओ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ११८३ में की ग है। फलिहा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३P में की गई है। फलिहो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२३7 में को गई है। फालिहलो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-737 में की गई है। काहलो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १.५१४ मैं को गई है।
रुग्णः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप लुको होता है । इसमें सूत्र संख्या १.२५४ से 'र' का 'ल'; २-२ से संयुक्त 'या' के स्थान पर द्वित्व 'क' की प्रानि और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जुरको रूप की सिद्धि हो जाती है।
अपवारम्-संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अवदालं होता है । इनमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'ब'; २-७ से 'ध' का लोप; -८ से लोप हुए 'व्' में से शेष रहे हुए. 'द' को द्वित्व 'द' की प्राप्ति; १-२५४ से 'र' का 'ल'; ३-२५ से प्रथमा विमाक्त के एफ वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान में प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अपवाले रूप सिद्ध हो जाता है।
भसलो-रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१४४ में की गई है।
जठरम्-संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप जढलं और जदर होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१६ मे 'ठ' का 'ढ'; १-२५४ से प्रथम रूप में 'र' का 'ल' और द्वितीय रूप में १-२ से 'र' का 'र' ही; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दोनों रूप जदलं तथा जढरं क्रम से सिद्ध हो जाते हैं।
चठरः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप यढलो और बढ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१६8 से 'ठ' का 'ढ'; -२५४ से प्रथम रूप में 'र' का 'ल' तथा द्वितीय रूप में १-२ से 'र' का 'र'हो और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोनों रूप बदलो और बढरी क्रम से सिद्ध हो जाते हैं।