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# प्राकृत व्याकरमा *
'अतिमक्तक' शब्द में स्थित प्रथम 'त' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होती हुई नहीं देखो जाती है जैसे:अतिमुक्तकम् अइमुत्यं ।।
प्रश्नः—क्या एरानणो' प्राकृत शाकद संस्कृत 'ऐरावत' शब्द से रूपान्तरित हुआ है ? और क्या इस शब्द में स्थित 'त' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति हुई है ?
उत्तरः-प्राकृत 'एरावणो' शब्द संस्कृत 'ऐकावण:' शब्द से करानारत हुआ है; शतः इस शरद में 'त' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता है। प्राकृत शब्द 'गरावो' का रूपान्तर 'ऐशवतः' संस्कृत शरद से हुआ है। इस प्रकार एराबर। और एसबी प्राकृत शलमों का रूपान्तर क्रम से ऐरावण और परावतः संस्कृत शब्दों से हुआ है। लानुपार एरावणो में 'त' के स्थान 'ए' की प्राप्ति होने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता है।
गभितः संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसका प्राकृत रूप भरिभरण होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७ से 'र' का लोप, २-८६ से 'भ् को द्वित्व भ म को प्राप्ति; २.६ से प्राप्त पूर्व 'भ' को 'बू की प्राप्ति; ३-२०० से 'न' को रण की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गरिभणी रूप सिद्ध हो जाता है।
अणिउँतर और अहमुत्सय रूपों को सिद्धि सूत्र-संख्या १-२F में की गई है। एराषणो रुप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१४८ में की गई है।
एरावतः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप एरावओ होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-७७ से 'तू' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एराचओ रूप की सिद्धि हो जाती है।-२०८ ।।
रुदिते दिनागपः ॥ १-२०६ ।। रुदिते दिना सह तस्य द्विरुक्तो णो भवति ।। रुगणं ॥ अत्र कंचित् त्वादिषु द इत्यारब्धवन्तः स तु शौरसेनी मागधी-विषय एव दृश्यते इति नोच्यते । प्राकृते हि | ऋतुः । रिक । उऊ ।। रजतम् । स्पर्य ।। प्रत । एनं ।। गतः । म ।। पामतः । आगो । मांसम् | संपयं ।। यतः । जी ॥ ततः। तो ।। कृतम् । कयं ॥ हृतम् । इये । हताशः । हयासी ॥ श्रुतः । सुश्री ॥ आकृतिः । पाकिई ॥ नितः । निच्छुश्री ॥ तातः । तानो ॥ कतरः। कपरों ॥ द्वितीयः । दुइयो इस्यादयः प्रयोगा भवन्ति । न पुनः उरपाई इत्यादि ।। कचित् भावे पि व्यत्ययश्च (४-४४५)इत्येत्र सिद्धम् ।। दिही इत्येतदर्थ तु धनेर्दिहिः (२-१३१) प्रति बच्यामः ।।