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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित -
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अर्थ:--'रुदिप्त' शब्द में रहे हुए 'दि' सहित 'त' के स्थान पर अर्थात् 'दित' शम्नांश के स्थान पर द्वित्व 'एण' की प्राप्ति होती है । याने 'दिल' के स्थान पर 'पण' आदेश होता है जैसे:-रुदितम् = भएणं । 'त' वर्ण से संबंधित विधि-विधानों के वणन में कुछ एक प्राकृत व्याकरणकार 'ऋत्वादिषु ' अर्थात् ऋतु
आदि शब्दों में स्थित 'त' का '६' होता है ऐसा कहते हैं; वह कथन प्राकृत-भाषा के लिये उपयुक्त नहीं है। क्योंकि 'त' के स्थान 'द' को प्राप्ति शौरसेनी और मागधी भाषाओं में ही होती हुई देखी जाती है। न कि प्रकृत-भाषा में । अधिकृत-व्याकरण प्राकृत भाषा का है; अतः इसमें 'त' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति नहीं होती है। उपरोक्त कथन के समर्थन में कुछ एक उदाहरण इस प्रकार है:-ऋतुः-रि ऊ अथवा 'नऊ ॥ रजतमअयं ॥ एतद्-परं । गतः गया ।। आगत: प्रागो ॥ सांप्रतम संपयं ।। यतः जना ।। सत: तो ।। कृतम् कयं ।। हतम-हयं ॥ हताशः-हयामा । श्रुतःो ॥ आकृति:-श्रापिई ॥ निवृत:निन्युयो । तात:-चाओ ।। कतर कयरो। और द्वितीया-दुइया । इत्यादि 'त' संबंधित प्रयोग प्राकृतभाषा में पाये जाते हैं। प्राकृत भाषा में ' के या 'द' को शामिल नहीं होती है। केवल शौरसेनी
और मागधी भाषा में ही 'त' के स्थान पर 'द' का आदेश होता है । इसके उदाहरण इस प्रकार है:ऋतुः-उदू अथवा सदू ॥ रजतम्रयद इत्यादि ।
यदि किन्हीं किन्हीं शब्दों में प्राकृत-भाषा में 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति होती हुई गई जान तो उसको सूत्र-संख्या ४-४४७ से वर्ण-व्यत्यय अर्थात् अक्षरों का पारम्परिक रूप से अदला-बदली का स्वरूप समझा जाय; न कि 'त' के स्थान पर 'द' का श्रादेश माना जाय । इस प्रकार से सिद्ध हो गया कि केवल शौरसेनी एवं मागधी भाषा में ही 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति होती है; न कि प्राकृत भाषा में ।। दिही ऐसा जो रूप पाया जाता है; वह धृति शब्द का आदेश रूप शरद है; और ऐसा उल्लेख भागे सूत्र संख्या २-१३५ में किया जायगा । इस प्रकार उपरोक्त स्पष्टीकरण यह प्रमाणित करता है कि प्राकृतभाषा में 'त' के स्थान पर 'द' का आदेश नहीं हुश्रा करता है। तदनुसार प्राकृत-प्रकाश नामक प्राकृतव्याकरण में 'ऋत्यादिषु तोदः 'नामक जो सूत्र पाया जाता है। उस सूत्र के समान अर्थक सूत्र-रचने की इस प्राकृत-व्याकरण में आवश्यकता नहीं है । ऐसा आचार्य हेमचन्द्र का कथन है ।
___ काईतम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप रुण्यं होता है । इसमें मत्र संख्या १-२० से 'दिन' शब्दोश के स्थान पर द्वित्व 'एण' का आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर रुण्ण रूप सिद्ध हो जाता है।
रिक रूप की सिद्धि सत्र संख्या १-१४१ में की गई है। उऊ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३१ में की गई है। इपर्य रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है।