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* प्राकृत व्याकरण *
में तो 'प' का 'म' होता है और द्वितीय रूप में पका 'व' होता है। जैसे:-जीपः- नीमो अथवा नीवो और पापोडः = अामेलो. श्रावट
नीपः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप नीमो और नीको होते। इनमें से प्रश्न म्प में सूत्र संख्या १-२३४ से ५ का विकल्प से 'म और द्वितीय रूप में मूत्र संख्या -३१ से 'प' का 'त्र' तथा दोनों ही रूपों में ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्जिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से नीमो और नीघो रूप सिद्ध हो जाते हैं।
आमेलो रूप की मिद्धि मूत्र संख्या १-१०५ में की गई है। आपेडो रूप की सिद्धि मूत्र संख्या १२07 में की गई है। । १-२३४ ।।
पापद्धौं सः ॥ १.२३५ ।। पापद्धविपदादौ पकारस्य रो भवति ॥ पारद्धी ॥
अर्थ:-पापर्द्धि शहर में रहे हुए, द्वितीय 'प' का 'र' होता है। जैसे:-पापदि: पारद्धी ।। इस में विशेष शर्त यह कि 'पापर्द्धि' शब्द वाक्य के प्रारंभ में नहीं होना चाहिये; तभी द्वितीय 'प' का 'र' होता है यह बात वृत्ति में 'अपादो' से बतलाई है।
___पापछिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पारद्धी होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२३५ से द्वितीय 'प' का 'र'; २-5 से रेफ रूप 'र' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्त होकर पारद्धी रूप सिद्ध हो जाता है।
फो भ-हौ ॥ १-२३६ ।। स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेः फस्य महौ भवतः ॥ क्वचिद् भः । रेफः । भो ॥ शिफा । मिभा। ववचित्तु हः । मुत्ताहलं ॥ क्वचिदुभावपि । सभलं सहलं । सेभालिया सेहालिया। सभरी सारी । गुभइ गुहइ ॥ स्वरादित्येव । गुफा ।। असंयुक्तस्येत्येव । पुष्पं ॥ अनादेरित्येव । चिट्ठइ फणी ॥ प्राय इत्येव । कमण-फणी ।।
____अर्थ:- यदि किसी शठन में 'फ' वण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप हो; अर्थात् वह 'क' वर्ण हलन्त याने म्बर-रहित भी न हो; एवं आदि में भी स्थित न हा; तो उस 'फ' वर्ण का 'भ' और 'ह' होता है। किसी किसी शठन में 'भ' होना है। जैसे:-रेफः-रेभो । शिफा=सिमा । किसी किसी शब्द में 'ह' होता है । जैसेः-मुक्ताफलम्-मुत्ताहनं ।। किसी किसी शब्द में फ' का 'भ'