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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित
एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ सं प्राप्त 'म्' का 'अनुस्वार होकर अहाजायें रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-२४६ ।।
युष्मद्यर्थपरेतः ॥ १-२४६ ।।
युष्मच्छन्देर्धपरे यस्य तो भवति || तुम्हारिमा | तुम्हरी || अर्थ र इति किम् । जुम्ह दम्ह-पयर ं ।।
अर्थः-- जब 'युष्मद्' शब्द का पूर्ण रूप से 'तू-तुम' अर्थ व्यक्त होता हो; तभी 'पुष्मद्' शब्द में स्थित 'य' वर्ण का 'त' हो जाता है। जैसे:- युष्माद्दश: तुम्हारियो । युष्मदीयः तुम्हरो ॥
प्रश्नः - 'अर्थ परः' अर्थात् पूर्ण रूप से 'तू तुम' अर्थ व्यक्त होता हो: नभी 'युष्मद्' शब्द में स्थित 'य' वर्ण का 'त' होता है;' ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः- यदि तू-तुम अर्थ 'युष्मद्' शब्द का नहीं होता हो, एवं कोई अन्य अर्थ 'युष्मद्' शब्द का प्रकट होता हो तो उस 'युष्मद्' शब्द में स्थित 'य' का 'त' नहीं होकर 'य' का 'ज' सूत्र संख्या १-२४५ के अनुसार होता है । जैसे:- युष्मदस्मत्प्रकरणम् - (अमुक-तमुक से संबंधित अनिश्चित व्यक्ति से संबंधित = ) जुम्ह दम्ह पयरणं । इस उदाहरण में स्थित 'युष्मद्' सर्वनाम 'तू-तुम' अर्थ को प्रकट नहीं करता है; अतः इस में स्थित 'य' वर्ण का 'त' नहीं होकर 'ज' हुआ है ॥
तुम्हारिस रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१४१ में को गई है।
युष्मदस्यः संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसका प्राकृत रूप तुम्हरो होता है । इसमें सूत्र संख्या १.२४६ से 'य्' का 'तू' २०७४ से 'म' के स्थान पर 'मह' की प्राप्ति १-११ से 'युष्मद्' शब्द में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'त' का लोप २-९४७ से 'सम्बन्ध वाला' अर्थग्रोतक संस्कृत प्रत्यय 'ई' के स्थान पर भाकृत में 'कर' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थानपर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तुम्हरी रूप सिद्ध हो जाता है।
युष्मत्-अस्मत् संस्कृत सर्वनाम मूल रूप हैं । इनका (अमुक-तमुक अर्थ में) प्राकृत रूप जुम्ह दम्ह होता है। इनमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य्' का 'ज़; २-७४ से 'म' और 'स्म' के स्थान पर 'म्ह' की प्राप्ति -५ से 'युष्मद्' में स्थित 'द्' की परवर्ती 'अ' के साथ संधि; और १-११ से 'अस्मद्' में स्थित अन्त्य 'द्' का लोप होकर जुम्हदम्ह रूप की सिद्धि हो जाती हैं ।
प्रकरणम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पयरणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २ से प्रथम 'र्' का लोप; १--१७७ से 'कू' का लोप १-९८० से लोप हुए कू में में शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पयरणं रूप सिद्ध हो जाता है । ।।१-२४६ ॥
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