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* प्राकृत व्याकरण *
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अश्यकः संग्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप अवयवो होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अवयको रूप सिद्ध हो जाता है।
विनयः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विर, ओ होता है । इममें सूत्र संख्या १.२२८ से 'न' का 'ण'; १-१७ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर षिणो रुप सिद्ध हो जाता है।
सयमः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप संजमो होता है । इसमें सूत्र संख्या -२४५ से 'य' का 'ज' और ३-६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संजमो रूप सिद्ध हो जाता है।
सयोगः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप संजोगी होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग म 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संजोगी रूप सिद्ध हो जाता है।
अपयशस् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अवजसो होना है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; १-२४५ से 'य' का 'ज'; १-२६० से 'श' का 'स'; १-११ से अन्त्य हलन्त 'स' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति होकर अपजसी रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रयागः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पोत्रो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७१ से 'र' फा लोप; १.४.७७ से 'य' और 'ग' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभिक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' की प्राप्ति होकर पाओ रूप सिद्ध हो जाता है।
यथाख्यातम् संस्कृत रूप है। इसका श्राप प्राकृत रूप अहक्खायं होता है । इम में सब मंख्या १-२४५ से-(वृति से)-'य' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१८ से 'थ' का 'ह'; १-८४ से प्राप्त 'हा' में स्थित 'श्रा' को 'अ' की प्राप्ति; २०७० से 'य' का लोप; २.८६ से 'ख' को द्वित्व 'ख' की प्राप्ति २६० से प्रान पूर्व 'ज्' को 'क' की प्राप्ति; १-१७७ से 'तू' का लोप; १.१८० से लोप हुए 'त' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुमकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर अहकरवायं रूप सिद्ध हो जाता है।
यथाजात र संस्कृत विशेषण है। इसका श्रार्ष-प्राकृत में अहाजार्य रूप होता है। इसमें सूत्रसंख्या १-२४५. की वृत्ति से 'य' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; {- ८७ से 'थ' का 'ह'; १-१७७ से 'तू' का लोप; १-१८० से लोप हुप '' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति, ३-२५ से प्रथमा विक्ति के