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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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न्यायः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप नाो होता है । इममें सूत्र संख्या २-७८ से प्रथम '' का लोप; १-१७७ से द्वितीय 'य' का भी लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नाओ रूप सिद्ध हो जाता है । ॥ १-२२६
निम्ब-नापिते-ल-गह वा ॥ १-२३० ॥ अनयानस्य ल राह इत्येतो या भवतः ।। लिम्बो निम्यो । एहाविमो नावियो ।।
अर्थ:--निम्म' शब्द में स्थित 'न' का बैकल्पिक रूप से 'ल' होता है । तथा 'नापित शब्द में स्थित 'न' का वैकल्पिक रूप से रह होता है। जैसे:-निम्बा लिम्बो अथवा निम्बा । नापित:-रहावित्री अथवा नाविश्रो ।।
निम्बः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप लिम्बो और निम्बी होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १.२३० से 'न' का वक्रल्पिक रूप से 'ल' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लिम्बा और निम्बी दोनों रूपों की कम से सिद्धि हो जाती है।
नापतः संस्कृत रूप में के प्रति व सावित्रो कौर नाविगो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२३० से 'न' का वैकल्पिक रूप से 'राह'; १.२३१ से 'प' का 'ब'; १-२४७ से 'स्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एफ वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर ण्हाधिओ और नाविमो दोनों रूपों की क्रम से सिद्धि हो जाती है। ॥ १-२३०॥
पो वः ॥ १.२३ ॥ स्वरात परस्यासंयुक्तस्यानादेः पस्य प्रायो वो भवति । सवहो । मावो । उवसम्गो । पईयो । कोसयो । पावं ! उवमा । कविलं । कुणवं । कलायो । कवाल महि-त्रालो । गो-बई । तवइ । स्वरादित्येव । कम्पड् ।। असंयुक्तस्थेत्येव । अप्पमत्तो || अनादेरित्येव । सुहेण पहा ।। प्राय इत्येव । कई । रिऊ । एतेन पकारस्य प्राप्तयो लोप वकारयोर्यस्मिन् कृते श्रुति सुखमुत्पद्यते स तत्र काय:।।
अर्थः-यदि किसी शब्द में '' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप हो; अर्थात् हलन्त (स्वर-सहित ) भो न हो एवं श्रादि में भी स्थित न हो; तो उस '५ वर्ण का प्रायः 'व' होता है। जैसे:-शपथः = सबहो । श्राप सावो ॥ उपसर्गः-उपसग्गो ॥ प्रदीप:- पईवोकाश्यपः = कासयो । पापम्पावं ॥ उपमा - उवमा ।। कपिलम कवितं ॥ कुणपम् -- कुणावं ॥ कलापः = कलावा ॥ कपालम् = कवालं ।। महि-पालः = महिवालो ।। गोपायति = गोवइ ।। तपति =तवह ॥