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१-२१६ से द्वितीय 'द' का 'र' और १-२६२ से 'श' का 'ह' होकर बारह रूप सिद्ध हो जाता है ।
तेरह रूप की सिद्धि सूत्र- संख्या १- १६५ में की गई हैं।
गदगदम, संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप गन्गरं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द् का लोपः २८६ से द्वितीय 'ग' को द्वित्व 'गुग' की प्राभिः १-२१६ से द्वितीय' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति; ६-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म् प्रत्यय की प्राप्ति और १२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर गरगरं रूप सिद्ध हो जाता है ।
* प्राकृत व्याकरण
तब दश संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप ते दस होता है। इसमें सूत्र- संख्या ३-६६ से संस्कृत नाम 'युष्मद्' के षष्ठी विभक्ति के एक वचन के 'तब' रूप के स्थान पर 'ते' रूप का आदेश और १-२६० से 'श' का 'स' होकर ते दस रूप सिद्ध हो जाता है ।
उदह रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७१ में की गई है ।। १-२१६ ।।
केली ॥
कदल्यामद्रुमे ॥ १-२२० ॥
कदली शब्दे अद्रुम - वाचिनि दस्य रो भवति । करली || अद्रुम इति किम् । कथली
अर्थः---संस्कृत शब्द कवली का अर्थ वृक्ष- याचक केला नहीं होकर मृग-हरिए 'वाचक' अर्थ हो तो उस दशा में कदली शब्द में रहें हुए 'द' का 'र' होता है । जैसेः -- कदली- करली अर्थात् मृग विशेष ।।
प्रश्नः – सूत्र में 'श्रद्रुम' याने वृक्ष अर्थ नहीं ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः- यदि 'कदली' का अर्थ पशु-विशेष वाचक नहीं होकर केला वृक्ष-विशेष वाचक हो तो उस दशा में कदली में रहे हुए 'द' का 'र' नहीं होता है; ऐसा बतलाने के लिये हो सूत्र में 'अङ्कुम' शब्द का उल्लेख किया गया है । जैसे:- कदली - कयली अथवा केली अर्थात् केला वृक्ष विशेष ॥
कदली संस्कृत रूप हैं । इसको प्राकृत रूप करली होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २२० से 'द' का '' होकर करली रूप सिद्ध हो जाता है।
arrior रूपों को सिद्धि सूत्र संख्या १-१६७ में की गई है ।। १०२२० ।।
प्रदीपि - दोहदे लः ॥१-२२१ ॥
पूर्वे दीप्यतो घात दोहद-शब्दे च दस्य लो भवति || पलीवेह | पलियं । दोहली ||
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अर्थः--'प्र' उपसर्ग सहित दीप धातु में और दोहद शब्द में स्थित 'द' का 'ज' होता है। जैसे:प्रदीपयति = पलीबेड़ || प्रदीप्तम्- पलित्त || दोहदः दोहलो ॥