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* प्राकृत व्याकरण में
पीतलम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप पीयलं और पीअलं होते हैं। इनमें से प्रश्रम रूप में सूत्र संख्या १.२१३ से बैकल्पिक रूप में 'न' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में १-१७5 से 'त' को लोप; ३-२५ से नोनों रूपों में प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पीवल और पीअलं दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं ।
पीतम् संस्कृत रूरूप है । इसका प्राकृत रूप पीअं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से '' का लोप, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक घचन में अकारान्त नपुंसक्त लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पी रूप सिद्ध हो जाता है । ।। १-२१३ ।।
वितस्ति-वसति-भरत-कातर-मातुन्निो हः ।। १-२१४ ॥ एषु तस्य हो भवति ।। विद्वत्थी । वसही ॥ बहुलाधिकारात् कचिम्म भवति । वसई । भरहो । काहलो । माइलिङ्ग । मातुलुङ्ग शब्दम्य तु माउलुङ्गम् ।।
अर्थ:--वितस्ति शब्द में स्थित प्रथम 'त' के स्थान पर और वसति, भरत, कातर तथा मातुलिङ्ग शब्दों में स्थित 'त' के स्थान पर है की प्राप्ति होती है। जैसे:-वितस्तिः-विहल्यी; वसतिः-वसही; मरतः भरहो; कातरः काहलो; और मातुलिङ्गम् मालिङ्ग । 'बहुलाधिकार' सूत्र के आधार से किसी किसी शब्द में 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं भी होती है। जैसे:-वसतिः वसई ॥ मातुलुङ्ग शब्द में स्थित 'त के स्थान पर ह' की प्राप्ति नहीं होती है । अत: मातुलुङ्गम् रूप का प्राकृत रूप माउलुङ्ग होता है।
वितस्तिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विहत्यी होता है। इसमें सूत्र संस्त्या १.२१४ से प्रथम 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्तिः २-४५ से 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त थ' को द्वित्व 'थथ'; २-६० से प्राप्त पूर्व 'थ' को 'तु की प्राप्ति, और ३-१६ से प्रथमा विमति के एक वचन में इकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर पिहाथी रूप सिद्ध हो जाता है।
वसतिः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप वसही और वसई होते हैं। इनमें प्रथम रूप में सूत्र संख्या १.२१४ से 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२ के अधिकार से तथा १-१७७ से त्' का लोप; तथा दोनों रूपों में सूत्र संख्या ३-१४ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हरघ स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से सही और वसई दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं।