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* प्राकृत व्याकरण *
प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति: और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रयई रूप सिद्ध हो जाता है।
धतिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप निही होता है। इसमें मन्त्र-संख्या २-१३१ से 'वृति' के स्थान पर 'दिहि रूप का आदेश और ३-१४ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर दिही रूप सिद्ध हो जाता है ॥१-२०६ ।।
सप्ततौरः ॥ १-२१० ॥ । सप्ततौ तस्य रो भवति ।। सत्तरी ।।
अर्थ:-सप्तत्ति शब्द में स्थित द्वितीय त' के स्थान पर 'र' का आदेश होता है । जैसे:-सप्ततिः -सत्तरी ।।
सप्तासः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सत्तरी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'प्' का लोप; २६ से प्रथम 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्रापित १-२९० से द्वितीय 'तू' के स्थान पर 'र' का आदेश
और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त रूप में 'सि प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य इस्व स्वर 'इ' को दीघ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर सत्तरी रूप सिद्ध हो जाता है ॥ १-२१०।।
अतसी-सातवाहने लः ॥१-२११ ॥ अनयोस्तस्य लो भवति ॥ अलसी । सालाहणो । सालवाहणो । सालाहणी भासा ॥
अर्थ:--अतसी और सातवाहन शठकों में रहे हुए 'त' वर्ण के स्थान पर 'ल वर्ण की प्राप्ति होतो है । जैसे:-श्रतमी-अलसी ।। शातवाहन पालाहणो और सालवाहणो ॥ शातवाहनी भाषा-सालाहणी भासा
अलसी संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप अलसी होता है । इसमें सूत्र-संख्या १.२११ से 'स्' के स्थान पर'ल' का आदेश होकर अलसी रूप सिद्ध हो जाता है।
सालाहणो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-८ में की गई है।
शातवाहनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सालवाहणणे होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२११ सेति' के स्थान पर 'ल' का आदेश; १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सालपाहणो रूप सिद्ध हो जाता है ।