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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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प्राथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति
और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कम से एवं वैकल्पिक रूप से चुन्छ छुन और तुन्छ रूप सिद्ध हो जाते हैं। ॥ १-२०४ ।।
तगर-त्रसर-तूवरे टः ॥ १-२०५ ।। एप तस्य टो भवति ।। टगरी टसरो । द्रवरों ॥
अर्थ:-तगर; मर और नूबर शब्दों में स्थित 'त' काट' होता है। जमे:-नगर: = टगरी; वार:= दमरो और तूबरः- टूवरो ।।
तगरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप टगरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२०५ मे 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुन्जिा म पनि प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर टगरी कप सिद्ध हो जाता है।
सर: संस्कृत का है। इसका प्राकृत रूप टसरो होता है। इसमें मूत्र-मंख्या २-३६ मे 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; १-२०५. से शेष 'त' के कारट' की प्राप्ति और ... लिकिन के एक वचन में अकारान्त पुल्जिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर टप्सरो रूप मिद्ध हो जाता है।
तूवरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप टूवरो होता है। इस में मूत्र-संख्या १-२०५ से 'त' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिग में 'मि' प्रत्यत्र के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इवरो रुप सिद्ध हो जाता है ।। १।०५।।
प्रत्यादौ डः ॥ १-२०६॥ प्रत्यादिष तस्य डो भवति ।। पडिवन्न । पडिहासो । पडिहारो । पाडिफद्री । पडिसारो पडिनिअत्तं । पडिमा । पडिवया । पडंसुश्रा । पडिकरइ । पहुडि । पाहुडं । वावडो। पडाया । बहेडो । हरडई । मडयं ।। आर्षे । दुष्कृतम् । दुकडं ॥ सुकृतम् । सुकडं ।। आहृतम् । आहडं । अवहृतम् । अवहर्ड। इत्यादि । प्राय इत्येव । प्रति समयम् । पइ समयं ॥ प्रतीपम् । पईवं ।। संप्रति । संपइ । प्रतिष्ठानम् । पइट्टाणं ॥ प्रतिष्ठा । पट्टा । प्रतिज्ञा। पइगाया ॥ प्रति । प्रभृति । प्राभृत । व्याप्त । पताका । विभीतक । हरीतकी । मृतक । इत्यादि ।
अर्थ:-प्रति आदि उपसर्गों में स्थित 'त' का 'T' होता है । जैसे:-प्रतिपन्न अडियन्नं ॥ प्रतिभासः= पडिहासो ॥ प्रतिहारः= पडिहारी ॥ प्रतिस्पःि -पाडिरफद्धी ॥ प्रतिमार:=पडमारो ॥ प्रतिनिवृत्तम् = पडिनिश्रत्त ।। प्रतिमा-पडिमा । प्रतिपदा-पडिवया । प्रनिश्रु घड'मुग्रा ॥ प्रतिकरोति