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* प्राकृत व्याकरण *
पडिकरइ ।। इस प्रकार 'प्रति' के उदाहरण जानना । प्रभृति = पद्धि । भाभृत्तम् पाहुई। व्यापत:बावड्डो ॥ पताका-पडाया ॥ विभीतकः = बहेडी ।। हरीतकी हरद्दई ।। मृतकम् - मडयं ।। इन जड़ाहरणों में भी 'त' का 'व' हुआ है ।। आर्ष-प्राकृत में भी 'त' के स्थान पर 'ड' होता हुआ देखा जाता है। जैसेः-दुष्कृतम् = दुक्कड । सुकृतम् - सुकड' । आइतम पाहड । अवहृतम् = अबहड' ।। इत्यादि ।। अनेक शब्दों में ऐसा भी पाया जाता है कि संस्कृत रूपान्त से प्राकृत रूपान्तर में त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति होनी हुई नहीं देखी जाती है । इसी चिदम को मानाय चन्द्र ने इसी सूत्र की वृत्ति में 'प्रायः' शब्द का उल्लख करके प्रदर्शित किया है। जेसे:-प्रतिसमयम् = पइसमये ।। प्रतीपम् = पईवं || संप्रति= संपइ । प्रतिष्ठानम् - पइट्ठाणं ।। प्रतिष्ठा = पइछा ॥ प्रतिज्ञा = पइराणा ।। इत्यादि ।।
प्रतिपन्नम संस्कृत रुप हैं । इसका प्राकृत रूप पडियन्नं हाता है। इसमें सूत्र-मंख्या २-७६ से र' का लोप; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १-२३१ से द्वितीय 'प' के स्थान पर 'व की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में "मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मडिपन्न रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रतिभासः संस्कृत रूप है । इसकाप्राकृत रूप पडिहासो होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १-१८७ से 'म' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर पडिहासो रुप सिद्ध हो जाता है।
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प्रतिहारः संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप पद्धिहारो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २.७ से ' का लोप; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में श्राकारान्त पुल्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पडिहारी रूप सिद्ध हो जाता है।
पडिप्फी कप की सिद्धि सूत्र-संख्या १–४४ में की गई है।
प्रतिसारः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पडिसाये होता है। इसमें सूत्र--संख्या २-६ से 'र' का लोप; १-२०६ से 'त के स्थान पर 'लु' की प्राप्त; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर :ओ' होकर पडिसारो रुप सिद्ध हो जाता है।
प्रतिनिवृतम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप पडिनिअत्त होता है। इसमें सूत्र संख्या --५६ से 'र' का लोप; १.२०६ से प्रथम 'a' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १-१७७ से 'व' का लोप: १-१२६ मे शंप 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन से अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सिं प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और -२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पहिनिअन रुप सिद्ध हो जाता है ।
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