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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
उत्तरः- क्योंकि यदि किसी शब्द में ह' वर्ण आदि अक्षर रूप होगा; तो उस 'ट' का 'द' नहीं होगा । जैसेः- हाये तिष्ठति= हिश्रए ठाइ ।।
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मः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप मठो होता है। इसमें सूत्र संख्या १- १६६ से 'ठ' का 'ढ' और १-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर शिव जाता है।
शः संस्कृत विशेष रूप है। इसका प्राकृत रूप मढो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से श का 'स'; १-९६६ से 'ठ' का 'ढ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सही रूप सिद्ध हो जाता है ।
कमठः संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप कमी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-९६६ से 'ठ' का 'द' और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कमडो रूप सिद्ध हो जाता है।
कुठारः संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप कुढारी होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-९६६ से 'ठ' का 'द' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कुठारो रूप सिद्ध हो जाता है ।
पति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप पढइ होता है। इसमें सूत्रसंख्या १-१६६ से 'उ' का 'द' और ३- १३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'त्ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पकड़ रूप सिद्ध हो जाता है ।
बैकुण्ठः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप बेकुठो होता है। इसमें सूत्र- संख्या १-१४८ से 'ऐ' स्थान पर 'ए' की प्राप्तिः ४ २५ से 'ए' के स्थान पर 'अनुस्वार' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कुंठ रूप सिद्ध हो जाता है ।
fast संस्कृतकर्मक क्रियापद का रूप है ! इसका प्राकृत रूप चिट्ठर होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-१६ से संस्कृत धातु 'स्था' के आदेश रूप 'तिष्ठ' के स्थान पर चिट्ठ' रूप आदेश की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चिट्ठा रूप सिद्ध हो जाता है ।
हृदये संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप हिए होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति: १-१७७ से 'द्' और 'य्' दोनों वर्णों का लोप; और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग अथवा नपुंसक लिंग में 'ङि' 'इ' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हिभए रूप सिद्ध हो जाता है ।