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* प्राकृत व्याकरण *
घणो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ?-१७२ में की गई है।
अस्थिरः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रुप अश्रिरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-४७ से 'स' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अथिरो रूप मित हो जाता है।
जिनधर्मः संस्कृत रुप है। इसका प्राकृत रूप जिण-धम्मो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-७६ से 'र' का लोप; २-८८ से 'म्' को द्वित्व 'मम' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जिण-धम्मो रूप सिद्ध हो जाता है।
प्रणष्टः संस्कृत विशेषण मप है । इसका प्राकृत रूप पणटो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' का लोप; २-३४ से 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; ८. से 'ठ' को द्वित्व छ की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'ठ' को व्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्डिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पणही रुप सिद्ध हो जाता है।
__ भयः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप भी होता है ! इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से . 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में सिं' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति होकर भो रूप सिन हो जाता है। नभं रूप को सिसि सूत्र-संख्या १-37 में की गई है ।। १-१८७ !!
पृथकि धो वा ॥ १-१८८ ॥ पृथक् शम्दे थस्य धो वा भवति ॥ पिधं पुधं । पिहं पुहं ॥
अर्थः-पृथक् शब्द में रहे हुर 'थ' का विकल्प रुप से 'ध' भी होता है। अतः पृथक शब्द के प्राकृत में वैकल्पिक पक्ष होन से चार रूप इस प्रकार होते हैं:-पृथक्-पिध; पुध पिहं और पुहं ।।
पृथक् संस्कृत अव्यय है । इसके प्राकृत पिधं, पुधं पिहं और पुहं होते हैं । इसमें सूत्र संख्या १-१३७ से 'ऋ' के स्थान पर विकल्प रूप से और कम से 'इ' अथवा 'उ' की प्राप्ति; १-१८८ से 'थ' के स्थान पर विकल्प रूप से प्रथम दो रूपों में 'ध' की प्राप्ति; तथा १-१८७ से तृतीय और चतुर्थ । विकल्प से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यजन 'क' का लोप; और १-२४ की वृत्ति से अन्त्य स्वर 'अ' को 'अनुस्वार' की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रुप पिंध, युध, पह और पुहं सिद्ध हो जाते हैं ॥ १-१८८ ॥