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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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पित-पतिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पिउ-बई होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से दोनों 'त्' का लोप, १-१३४ से 'प्रा' का 'उ'; १-२३१ से 'प' का 'ब' और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुन्निग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर पिउबई रूप सिद्ध हो जाता है । ।।१-१३४||
मातुरिछा ।। १-१३५ ।। मात्र शब्दस्य गौणस्य ऋत इद् वा भवति ।। माइ-हेर । माउ-हरं । कचिदगौणस्यापि । माईणं ॥
अर्थ:-किसी संयुक्त शब्द में गौण रूप से रहे हुए 'मातृ' शब्द के 'ऋ' की विकल्प से 'इ' होती है। जैसे-मातृ-गृहम् माइ-हरं अथवा माउ-हरं ।। कहीं कहीं पर गौण नहीं होने की स्थिति में भी 'मातृ' शब्द के 'ऋ' की 'इ' हो जाती है। देश मातृणम् - सणं .।
मानु-गृहम, संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप माइ-हरं और माउ-हर होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त' का लोप; १.१३५ से आदि 'ऋ' की विकल्प से '; और शेष 'हरें' की सोधनिका सूत्र संख्या १-१३४ में वर्णित 'हरे रूप के अनुसार जानना । द्वितीय रूप 'माउ-हरं' की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३४ में की गई है।
मानुणाम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप माईणं होता है। इसमें सूत्र संख्या ६-१७७ से 'तू' का लोप; १-१३५ से 'ऋ' की 'इ'; ३-६ से षष्ठी विभक्ति के अहु वचन में स्त्रीलिंग में 'श्राम्' प्रत्यय के स्थानपर 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१२ से 'श्राम् प्रत्यय अर्थात् 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होने के कारण से अन्त्म हस्त्र स्वर 'ह' की दीर्घ स्वर 'ई और १-२७ से प्राप्त ' प्रत्यय पर विकल्प से अनुस्वार की प्राप्ति होकर माईणं रूप सिद्ध हो जाता है । ।११-१३५।।
उदूदोन्मृषि ।। १-१३६॥ सृपा शन्दे अत उत् ऊन् पोश्च भवति । मुसा । मूसा - मोसा । मुसा-वानी। मा-बाश्री मोसा-बानो॥
अर्थः--मृषा शब्द में रही हुई 'ऋ' का 'ज' अथवा 'x' अथवा 'यो होता है। जैसे-मृषा = मसा अथवा मूसा अथवा मोसा । मृषा-वानः-मुसा-बानो अथवा मूसा-वाओ अथवा मोमा-वात्रो ।
भूषा संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रुप क्रम से मुसा, मूमा और मोसा होता है। इनमें सूत्रसंख्या १.१३६ से 'ऋ' का क्रम से 'उ' 'ऊ'; और 'ओ' और १-२६० से 'ष' का 'स' होकर कम से मुसा मुसा और मौसा रूप सिद्ध हो जाता है।