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'न'; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और -२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से सिन्नं ओर से रूप सिद्ध हो जाते है | || १५०।।
* प्राकृत व्याकरण *
दैत्यादौ च ॥ १-१५१ ।।
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दैन्य ।
सैन्य शब्दे दैत्य इत्येवमादिषु च ऐतो अह इत्यादेशो भवति । एत्वापवादः ॥ स ं । दहच्चो | दुइअ ं । अइसरि । मद्दरवो । बजवणो । दइव वइमालीश्रं । वइएसो वइए | | बद-भो । बहस्सायरो | कइभवं । वइसाहो । वइसालो । सहरं । चइत || दैत्य ऐश्वर्य । भैरव व जवन | दैवत । वैतालीय । देश । वेदेह । वैदर्भ वैशाख । वैशाल | स्वर । चैत्य । इत्यादि । विश्लेषे न भवति । चैत्यम् । चेमं ॥ चैत्य चन्दनम् । ची-वन्दणं ॥
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श्वानर |
केतव |
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भावें |
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अर्थ:-सैन्य शब्द में और दैत्य, दैन्य, ऐश्वर्य, भैरव, वैजवन, देवत, वैतालीय, वैदेह, वैदर्भ, Farar Ha, Fera, राज खैर, पेय इत्यादियों में हुए ऐ के स्थान पर 'इ' ऐसा आदेश होता है । यह सूत्र सूत्रसंख्या १-१४८ का अपवाद है । जैसे-सैन्यम् = सहनं । दैत्यः =दइच्चों | वैन्यम् - वहन्नं । ऐश्वर्यम् = श्रसरियं । भैरवः = भइरयो । वैजवनः = वइजवरण | दैवतम् इव । वैतालीयम् = वइआलीश्रं । वैदेश: - वहएसो । वैदेहः = बइ हो । वैदर्भः = वइदम्भो। वैश्वानरः = वइस्सारणशे । कैतवम् = कइवं । वैशाखः = वहसाहो । वैशालः = हमालो । स्वैरम् = सहरं । वैत्यम् = चइत्त' | इत्यादि । जिस शब्द में संधि-विच्छेद करके शब्द को स्वरसंयुक्त कर दिया जाय तो उस शब्द में रहे हुए 'ऐ' की 'अ' नहीं होती है । जैसे-चैत्यग्=चेश्रं ॥ यहाँ पर "चैत्यम्" शब्द में संधि-विच्छेद करके 'तिम्' बना दिया गया है; इसलिये 'चैत्यम्' में रहे हुए 'ऐ' के स्थान पर 'अ' आदेश नहीं करके सूत्र संख्या १-१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' ही किया गया है। आर्ष-प्राकृत में 'चैत्य-वन्दनम' का 'चीवन्दणं' भी होता है ॥
सैन्यम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सङ्घनं होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१५१ से 'मे' के स्थान पर 'इ' का यावेश; २७८ से 'यू' का लोपः २८६ से शेष 'न' का द्वित्व 'न'; ३-०५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर सनं रूप सिद्ध हो जाता है ।
दैत्यः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप दक्षच्चो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-९५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'इ' का आदेश, २-१३ से 'त्य' का 'च से प्राप्त 'च' का द्वित्व 'च'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रहरी रूप सिद्ध हो जाता है ।