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निहतः और निनदः में नियमानुसार लुप्त होने वाले 'तू' और 'द' व्यञ्जन वर्णों के पश्चात् शेष 'अ' रहता है न कि 'अ' । तदनुसार इन शब्दों में शेष 'अ' के स्थान पर 'य' कार की प्राप्ति नहीं हुई है।
* प्राकृत व्याकरण *
प्रश्न- शेष रहने वाले 'अ' वर्ग के पूर्व में ' अथवा ' हो तो उस शेष 'अ' के स्थान पर 'य' कार होता है। ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः- क्योंकि यदि शेष रहे हुए 'अ' वर्ग के पूर्व में 'अ अथवा आ' स्वर नहीं होगा तो उस शेष 'अ' वर्ण के स्थान पर 'य' कार की प्राप्ति नहीं होगा । जैसे -लोकस्य जोअप | देवरः- देवशे । किन्तु किसी किसी शब्द में लुप्त होने वाले व्यञ्जन वर्णों में से शेष 'अ' वर्ग के पूर्व में यदि ' अथवा 'आ' नहीं हो कर यदि कोई अन्य स्वर भी रहा हुआ हो तो उस शेष 'अ' वर्ग के स्थान पर 'य' कार भी होता हुआ देखा जाता है । जैसे- पिवति पियइ ॥ इत्यादि ॥
तित्थयरो सयढं और नयरं रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है।
मी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १- १३० में की गई है।
काही रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है।
काच मणिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप काय मणी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'च' का लोपः १-१५० से शेष 'अ' को 'य' को प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इको दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर काय मणी रूप सिद्ध हो जाता है ।
स्वयं पयावई, रसायल और मयणो रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है।
पातालम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पायोल होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'तू' का लोपः १ १८० से शेष 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में ag' सकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पाया रूप सिद्ध हो जाता है।
‘गया'; 'नय’; ‘दयालू'; और 'लाचरण' रूपों की भी सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है ।
शकुनः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सउणो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० 'श' का 'स'; १-१७७ से क् का लोपः १-२२६ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सउणो रूप सिद्ध हो जाता है ।