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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित
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विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बाहड़ रूप सिद्ध हो जाता है।
इन्छ धनुः संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रूप इन्दहा होता है। इसमें सूत्र संख्या २.७८ से 'र' का लोपः १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' को प्रामि; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति होकर इन्द्रहणु रूप सिद्ध हो जाता है।
सभा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सहा होता है। इसमें सूत्र- संख्या ५-७ से 'भ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और संस्कृत-व्याकरण के विधानानुसार श्राकारान्त स्त्रीलिंग वाचक शब्द में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' स्वर को इसंज्ञो तथा १-११ से शेष 'स्' का लोप प्रथमा विभक्ति के एक पचन के रूप से सहा रूप सिद्ध हो जाता है।
__ स्वभावः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रुप सहायों होता है । इसमें सूत्र-संख्या ६-७ से व्' का लोप; १-१८७ से भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; और ३-२ मे प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सहावी रूप सिद्ध हो जाता है।
नह रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-17 में की गई है।
स्तन भरः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप थणहरो होता है । इममें सूत्र संख्या २-४५ से 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-१८७ से 'भ' का 'ह' और ३-२ से प्रश्रमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर थणहरो रूप सिद्ध हो जाता है।
शोभते संस्कृत अकर्मक क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप सोहइ होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-२३६ से 'शोम्' धातु में स्थित हलन्त 'म्' में 'अ' विकरण प्रत्यय की प्राप्ति; १-०६० से 'श' का 'म'; १-१८७ से 'भ' का 'ह'; और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'ई' प्रत्यय को प्राप्ति होकर सोहइ रूप सिद्ध हो जाता है।
संखो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-20 में की गई है।
सधः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप संघो होता है । इसमें सूत्र संख्या १.२५ ' ' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में पुल्जिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संघो रूप मित्र हो जाता है।
फन्था संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कंथा होता है । इसमें सूत्र संख्या १.२५ से 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और संस्कृत व्याकरण के विधानानुसार प्रथमा विभक्ति के एक वचन