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* प्राकृत व्याकरण *
२-७७ से 'श' का लोप; १.१८७ से 'घ' के स्थान पर ह' की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल में प्रथम के पुरुष एक वचन में 'ते' प्रत्ययके स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर लाहइ रूप सिद्ध हो जाता है
नाथः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नाहो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्त और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नाहो रूप सिद्ध हो जाता है।
आवसथा संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप पावसहो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आवसही रूप सिद्ध हो जाता है !
मिथुनम् संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रुप मिहुणं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'थ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-२०८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ मे प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मिहुर्ण रूप सिद्ध हो जाता है।
कथयति संस्कृत क्रियापद रूप है । इसका प्राकृत रूप कहइ होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३६ से 'कथ' धातु के हलन्त 'थ्' में विकरण प्रत्यय 'श्र' की प्राप्ति; संस्कृत-भाषा में गण-विभाग होने से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अय' का प्राकृत-भाषा में गण-विभाग का अभाव होने से लोप; १-१८० से थ' के स्थान पर ', की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष के एक घचन में संस्कृत प्रल्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कह रूप मिस हो जाता है।
साधुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप साहू होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त: पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' के स्थान पर दीघ स्वर 'ऊ की प्राप्ति होकर साहू रुप सिद्ध हो जाता है।
व्याधः-संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप रूप वाहो होता है ? इममें सूत्र-संख्या २.७८ से 'य' का लोप; -१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वाही रूप सिद्ध हो जाता है।
बीधरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रुप बहिरो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बहिरो रूप सिद्ध हो जाता हैं।
पाधते संस्कृत सकर्मक क्रियापद रूप है । इसका प्राकृत रुप बाहर होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ध के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति ४.२४६ से 'ध्' हलन्त व्यजन के स्थानापन्न व्याजन 'ह' में