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* प्राकृत व्याकरण *
ऊः स्तेने वा ॥ १-१४७ ॥ स्तेने एत उद् वा भवति || धूणो थेणो । अर्थः-'स्तेन' शब्द में रहे हुए 'ए' का विकल्प से 'ऊ होता है । जैसे-शेनः=थूणो और थेणो ।
स्तेमः संस्कृत पुल्लिंग रूप है । इसके प्राकृत रूप धूरणो और थेयो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २४५. से 'स्त' का स्थ'; १-१४७ से 'ए' का विकल्प से ''; १-२२८ से 'न' का 'ण'; और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक धचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से थूणो और येणो रूप सिद्ध हो जाते हैं। ।। १४७ ॥
ऐत एत् ॥ १-१४८ ॥ ऐकारस्यादौ वर्तमानस्य एवं भवति ।। सेला । सेलोक्कं । एरावणो । फैलासो । वेज्जो । केवो । वेहवे ।।
भर्थः-यदि संस्कृत शब्द में श्रादि में ऐ' हो तो प्राकृत रूपान्तर में उस 'ऐ' का 'ए' हो जाता है। जैसे-शैलाः = सेला । त्रैलोक्यम् = तेलोक्कं । ऐरावणः परावणो । कैलासः = केलासो । वैनः धेजो। कैटभः= केटवो । वैधव्यम् = वेहव्वं ॥ इत्यादि ।
शला' का प्राकृत रूप सेला होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १.६६८ से '' का 'ए'; ३-४ प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में पुल्लिग में प्राप्त 'जस्' प्रयय का लोप, और ३-१२ से 'जस' प्रत्यय की प्राप्ति के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' का 'या' होकर सेला रूप सिद्ध हो जाता है।
त्रैलोक्यम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप तेलोकं होता है । इसमें सूत्र संख्या २.७५ से २.' का लोप; १-१४८ से 'गे' का 'ए'; २.७८ से 'य' का लोप; २-८८ से शेष 'क' का द्वित्व 'क'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसफ लिंग में "सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर तेझोक्कं रूप सिद्ध हो जाता है।
ऐराषणः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप एरावगी होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१४८ से 'वे' का 'ए'; और ३-२ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एराषणो रूप सिद्ध हो जाता है।
फैलासः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप केलासो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-१५ से '' का 'ए' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर केलासो रूप सिद्ध हो जाता है।