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સરસ્વતિષ્ઠન માળીલાલ શાહ
* प्रियोदय हिन्दा व्याख्या सहित
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के स्थान पर अर्थात, 'उत्' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप कोहलं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय कप कोउहल्लं की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है।
तह अव्यय की सिद्धि मन्त्र संख्या १.६७ में की गई है।
मन्ये संस्कृत क्रियापद है। इसका प्राकृत रूप मन्ने होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४८ से 'य' का लोप; २-फर से शेष 'न' को द्वित्व 'म' की प्राप्ति होकर मन्ने रूप सिद्ध हो जाता है।
कुतूहलिक संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप कोहलिए और कुऊलिए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप कोहलिए में सूत्र संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तू' व्यन्जन के स्थान पर अर्थात् 'उतू शब्दोश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'शो' की प्राप्ति; ९-१०७ से 'क' का लोप और ३-४५ से मूल संस्कृत शब्द कुतूहलिका के प्राकृत रूपान्तर कुहलिश्रा में स्थित अन्तिम 'श्रा' का संबोधन के एक वचन में 'ए' होकर प्रथम रूप कोहलिए सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप कुहस्लिप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'तु' का लोप और शेष सिद्ध प्रथम रूप के समान ही होफर द्वितीय रूप कुकहलिए भी सिद्ध हो जाता है।
उरखलः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप अोहली और उऊहलो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ओहलो में सूत्र संख्या १-०७१ से श्रादि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'दू' व्यजन के स्थान पर अर्थात् 'उदू' शब्दांश के स्थान पर बैकल्पिक रूप से 'श्री' की प्राप्ति; १-१८७ से 'ख' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ओहलो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप उऊहलो में सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप उऊहलो भी सिद्ध हो जाता है।
उल्लूरबलम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप थोक्खलं और उलूहल होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ओक्खलं में सूत्र संख्या १-१७१ से सादि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'लू पञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'उलू शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'यो' की प्राप्ति; - से 'ख को द्वित्व 'ख' को प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप ओक्खलं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप उस्तूहल में सूत्र संख्या १-९८७ से 'ख' को 'ह' और शेष सिद्धि प्रथम रूप के ममान ही होकर द्वितीय रूप उलूहलं भी सिद्ध हो जाता है।