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* प्राकृत व्याकरण: *
रिपुः सस्कृत रूप है । इसका प्राकन रूप रिऊ होता है । इसमें सत्र संख्या १-१७७ से 'ए' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्त्र स्वर 'उ का दीर्घ स्वर 'ॐ' होकर रिऊ रूप सिद्ध हो जाता है।
सुउरितो रूप की सिद्धि सत्र संख्या १८ में की गई है। दयालुः सस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप दयालू होता है। इसमें सत्र सख्या १-४७ से 'यू' का लोप; १-१८० से शेष 'या' को 'या' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा मिक्ति के एक वचन में उकारान्स पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'उ' की प्राप्ति होकर दयालू रूप सिद्ध हो जाताहै।
नयमम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नयणं होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'य' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-२८ से द्वितीय 'न' को 'ण' की प्राप्ति; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मरणं रूप सिद्ध हो जाता है। .
वियोगः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विओओ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से '' और 'ग्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विओओ रूप सिद्ध हो जाता है।
लापण्यम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप लायरणं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व्' अ र 'य' का लोपः १-१८० से लुप्त ' के अवशिष्ट 'अ' को 'य' की प्राप्ति; 2 से 'श' को द्वित्व 'एमा' की प्राप्ति; ३-१५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर लायपणे रूप सिद्ध हो जाता है।
विचुधः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विउहो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-२३७ से 'ब' को 'व' की प्राप्ति; १-९७७ से प्राप्त 'ब' का लोप; -१८७ से 'धू' को 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्रास्ति होकर विउही रूप सिद्ध हो जाता है।
पडवानल संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप थलयाणलो होता है। इसमें सूत्र संख्या १.२०२ से 'दु' को 'ल' की प्राप्ति; १.१७७ से द्वितीय ' का लोपः १-१८० से लुप्त द्वितीय 'म्' में से अवशिष्ट 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३.२ से प्रथमा विभक्त्ति के एक वचन में पुल्लिग . में प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पलयाणलो रूप सिद्ध हो जाता है ।
मुकुसुमम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सुकुसुम होता है । इसमें सूत्र संख्या ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति १-२३ से प्राप्त 'म्' का प्रमुस्वार होकर मुकुसुम रूप सिद्ध हो जाता है।