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* प्राकृत व्याकरण *
तीर्थकरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तित्ययरो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीघ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; २-७६ से 'र' का लोप; २-८८ से 'थ' का द्वित्व थथ; २०६० से प्राप्त पूर्व 'थ्' का 'त'; १-१७७ से ' का लोप; ६-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तिथयरो कप सिद्ध हो जाता है।
लोक संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप लोश्रो होता है । इसमें सूत्र संख्या १. १४७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लोओ रूप सिद्ध हो जाता है।
शफटम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सयढं होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-१७७ से 'क' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-१६६ से 'ट' को 'ड' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नए सब लिंग में 'मि' प्रत्याशा पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सय रूप सिद्ध हो जाता है।
— नगः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'ग' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नो रूप सिद्ध हो जाता है।
___ नगरम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप नयरं होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१४७ से 'ग्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्रामिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर भयर रूप सिद्ध हो जाता है।
मयको रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३० में की गई है। __ शची संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रूप सई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १. ६० से 'श' को स; १-१७७ से 'च' का लोप; और संस्कृत-विधान के अनुस्वार प्रथमा विभक्ति के एक षचन में दीर्घ ईकारांत स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति; इसमें अन्त्य 'इ' की इत्संज्ञा और १-११ से शेष 'स' का लोप होकर सड़ रूप सिद्ध हो जाता है।
कचग्रहः संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रुप कयम्गहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'च' का लोप; १-१८० से 'म' को 'य' की प्राप्ति; २-७ से 'र' का लोप; २-८८ से शेष 'ग' को द्वित्व 'मग' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कयग्गहो रूप सिम हो जाता है।
रजतम् संस्कृत रूप है । इप्तका प्राकृत रूप रययं होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से, ज्' और 'तू' का लोप; १-१८० से शेष दोनों 'अ' 'अ' के स्थान पर 'प' 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभनित