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दीर्घ 'श्रा' का ह्रस्व 'अ' की प्राप्तिः २-२४ से 'र्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति २-८६ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'उन'; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कज्जं रूप सिद्ध हो जाता है ।
* प्राकृत व्याकरण *
सम, संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप सव्वं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र्' का लोपः २-८६ से शेष 'व' को द्वित्व 'ब्व' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सव्वं रूप सिद्ध हो जाता है ।
नक्च रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है ।
कालः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कालो होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कालो रूप सिद्ध हो जाता है ।
गन्धः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप गन्धो होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गन्धो रूप सिद्ध हो जाता है।
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चोरः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप चोरी होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चोरी रूप सिद्ध हो जाता है
जारः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप जारी होता है। इसमें सूत्र संख्या ३२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जारी रूप सिद्ध हो जाता हैं ।
तरुः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप तक होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर ह्रस्व 'उ' का दीर्घ 'ऊ' होकर तक रूप सिद्ध हो जाता है।
दषः संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप को होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वृषो रूप सिद्ध हो जाता है ।
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पापम, संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप पार्व होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' को 'व'; ३- २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पार्श्व रूप सिद्ध हो जाता है ।
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