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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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अमुकः संस्कृत रूप है । इप्तका प्राकृत रूप असुगो होता है । इसमें सूत्र-मख्या १-१७७ की वृत्ति से और ४-३६६ से 'क' के स्थान पर 'ग' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अमुगो रूप सिद्ध हो जाता है।
शाषकः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सावगो होता है। इसमें इसमें मत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप; १-२६० से शेष 'श' का 'स'; १-१७७ की वृत्ति से अथवा ४-३६६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सायगो रूप सिद्ध हो जाता है ।
आकार:संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप श्रागारो होता है । इसमें सत्र-संख्या १-१७७ की वृत्ति से अथवा ५-३६६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आगारी रूप सिद्ध होता है।
तीयकरः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप तित्थगरा होता है इममें मत्र-संख्या १-८४ से दीर्घ ई' के स्थान पर हस्र 'इ' की प्राप्ति, २-E से 'र' का लोप; २-८८ से शेष 'थ' को द्वित्व 'यूथ' की प्राप्ति; २६ से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति; १-१ से अनुस्वार का लोप; ५-१७७ की पृत्ति से अथवा ४-३८६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तित्थगरो रूप सिद्ध हो जाता है।
आकर्षः संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रूप आगरिसो होता है। इसमें मत्र-संख्या ६-१७७ की वृत्ति से अथवा ४-३६६ से 'क' के स्थान पर 'ग, की प्राप्ति २-१०५ से 'प' के पूर्व में 'इ' का आगम होकर 'र' को 'रि' की प्राप्ति १.२६० से 'प' के स्थान पर 'स' और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आगरिसो रूप सिद्ध हो जाता है।
लोकस्य संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप लोगरूप होता है । इसमें सत्र संख्या -७७ की वृत्ति से और ४-३६६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; और ३-१० से पष्ठी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में "डस्' प्रत्यय के स्थान पर 'रस' प्रत्यय को प्राप्ति होकर लोगस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
उधोतकराः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप उज्जोगरा होता है। इसमें सूत्र-संख्या-२-२४ से 'य.' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'ज'; १-१७४ से 'न' का लोप; १-१७५ की वृत्ति से अथवा ४-३६६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति और उसका लोप एवं ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व 'अ' का दीर्घ 'श्रा' होकर उज्जोअगरा रूप सिद्ध हो जाता है।