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प्राकृत व्याकरण *
द्वितीय रुप उअघणों में सत्र संख्या १-१४७ से 'त्' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रुप के समान ही होकर वित्तीय रुप उअधणो भी सिद्ध हो जाता है।
अवगतम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप अवगयं होता है । इसमें सूत्र संख्या ६-१७७ से 'न' का लोपः १-१८० से शेष ' को 'य' की प्राप्ति; और १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'म्' का अनुस्वार होकर अवगर्य रुप सिख हो जाता है।
अप शब्द संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रुप अवसद्दो होता है। इसमें सत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; १-२६० से 'श' का 'स'; २-७६ से 'बू' का लोप, २-८८ से 'द' को द्वित्व 'द' की प्रति
और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अयसहो रूप सिद्ध हो जाता है।
उत राव: संस्कृत वाक्यांश है । इसका प्राकृत रूप उअरवी होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१४७ से 'त् का लोप होकर जन्म अव्यय रूप सिद्ध हो जाता है । रवी में सत्र संख्या ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्मय के स्थान पर अन्त्य इत्व सर को दार्थ सरई की हाल होकर प्राकृत वाक्यांश उअरषी सिर से जाता है॥ १-१५२ ।।
ऊचोपे ॥ १-१७३॥ उपशब्द अदिः स्वरस्य परेण . सस्वर व्यजनेन सह ऊत् श्रोच्चादेशौ वा भवतः ।। ऊहसिनं श्रोहसिनं उवहसिभ । ऊज्झाश्रो श्रीमाओं उबझाओ ! ऊबासो ओभासो उववासो॥
अर्थ:--'उप' शब्द में आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् संपूर्ण 'उप' के स्थान पर वैकल्पिक रुप से और कम से 'ऊ' और 'ओ' श्रादेश हुश्रा करते हैं। तदनुसार 'उप' के प्रथम रूप में 'क'; द्वितीय रुप में ओ' और तृतीय रूप में 'उव' क्रम से, वैकल्पिक रूप से और श्रादेश रूप से हुआ करते हैं। जैसे-उपहसितम् - अहमिश्र, श्रोहसिधे और उवहसिकं । उपाध्यायः = अमाओ, प्रोज्झाओ और उवमानो। उपवासः- उासो, श्रोत्रासो और उववासी ॥
उपहसितम् संस्कृत रुप है । इसके प्राकृत रुप उहसिनं, श्रोहसिनं और उबहसिधे होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ऊहमिश्र में सूत्र संख्या ३-१७३ से आदि स्वर 'उ सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' म्यजन के स्थान पर अर्थात् 'उप' शब्दशि के स्थान पर वैकल्पिक रुप से '' श्रादेश की प्राप्ति; १.१७७ से 'त' का लोप और १-२३ से अन्स्य 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप ऊहसिभ सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप श्रोहसिनं में सत्र संख्या १-१५३ से बैकल्पिक रुप से 'उप' शब्दांश के स्थान पर 'ओ' श्रादेश की प्राप्ति और शेष सिथि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप ओहसिभ भी सिद्ध हो जाता है।
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