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प्राकृत व्याकरण
मोरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मोरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रश्रमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मोरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
मयूरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मऊरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'यू' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में सिं' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मऊरो रूप सिद्ध हो जाता हे। ।। १-१७१ ॥
अवापोते ॥ १-१७२ ॥ अवापयोरुपसर्गयोरुत इति विकल्पार्थ-निपाते च प्रादेः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह श्रोद् वा भवति । अव । श्रोअरह। अवयरह । श्रीवासो अवयासो | अप | श्रीसरह अवसरइ । श्रोसारियं अबसारि ॥ उत । श्री वणं । ओ घणो। उप वणं । उन पणो । चित्र भवित । अवगयं । अवसदो । उप रखी ॥
अर्थ:-'अव' और 'अप' उपसों के तथा विकल्प-अर्थ सूचक 'उत' अव्यय के श्रादि स्वर सहित परवर्ती स्वर सहित व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अव', 'अप' और 'उत' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति होती है। जैसे–'अव' के उदाहरण इस प्रकार है :-अवतरति = श्रोअरइ और अवयरइ । अवकाशः = ओसो और अघयासो। 'अप' उपसर्ग के उदाहरण इप्त प्रकार हैं:-अपमरति ओमरइ और अवसरह । अपसारितम् = श्रोसारिश्र और श्रवसारिश्र ॥ उत श्रव्यय के उदाहरण इस प्रकार है:-उतवनम् = ओ वणं । और उथ वर्ण । उतधनः = श्रो घणो और उअ घणो । किन्हीं कन्हीं शब्दों में 'अव' तथा 'अप' उपसगों के और 'उत' अव्यय के स्थान पर 'श्रो' की प्राप्ति नहीं हुश्रा करती है। जैसे अवगतम् = अवगयं ! अपशब्दः = अवसहो । उत रविः = उअ रखी ॥
अवतरति संस्कृत अकर्मक क्रियापद है। इसके प्राकृत रूप ओभरह और अवयरइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप श्रीधरह में सूत्र-संख्या १–१७२ से श्रादि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'व' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अव' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'श्री' की प्रामि; १-१७७ से '' का लोप और ३-१३६. से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय के प्राप्ति होकर प्रथय रूप ओअर सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप अवयरइ में सूत्र संख्या १-१७७ से 'स्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'स' की प्रानि और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रुप अपयह भी सिद्ध हो जाता है।
अवकाशः संस्कृत रुप है । इसके प्राकृत रुप ओबासो और अवयासो होते हैं। इनमें से प्रथम रुप ओश्रासो में सूत्र संख्या १-१७२ से श्रादि स्वर 'अ' संहित परवर्ती स्वर सहित 'ब' व्यन्जन के
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