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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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स्थान पर अर्थात् 'अव' उपसर्रा के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'श्रो' की प्रापि; १-१७७ से 'क' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक पचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ओआसो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप अषयासो की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई हैं। अपसरति संस्कृत अकर्मक क्रियापद है। इसके प्राकृत रुप श्रोसरइ और अयसरह होते हैं । इनमें से प्रथम रुप श्रोसरइ में सत्र संख्या १-१७२ से श्रादिस्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अप' उपमर्ग के भ्यान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत-प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ओसरह सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप अवसरह में सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व' और शेष सिद्धि प्रथम कप के समान ही होकर द्वितीय रूप अवसरद भी सिद्ध हो जाता है।।
अपसारितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप श्रोसारिश्र और अवसारिश्र होते हैं । इनमें से प्रथम रूप श्रोसारिश्र में सूत्र संख्या ५-१७२ से श्रादि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' यजन के स्थान पर अर्थात् 'अप' उपमर्ग के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्तिः १-१७७ से 'म्' का लोप और १.११ से 'म' का अनुस्वार होकर प्रथम कप आसारिअ सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'अयसारिश्र में मूत्र संख्या ६-२३१ से. 'प' का 'क' और शेष सिसि प्रथम रुप के समान ही होकर द्वितीय रुप अवसारिज भी सिद्ध हो जाता है। .
उतवनम् संस्कृत वाक्यांश है इसके प्राकृत रूप ओवणं और उअवणं होते हैं । इनमें से प्रथम रुप 'श्रोवणं' में सूत्र संख्या १-१७२ से श्रादि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'त' व्याजन के स्थान पर अर्थात् 'उत' अव्यय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'श्रो' की शप्ति; द्वितीय शब्द वणं में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण' और १-११ से अन्त्य व्यसन 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप "आपण" सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'उग्र वएं में सूत्र-संख्या १-१४४ से 'त्' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रुप 'उअषण' भी सिद्ध हो जाता है।
'उत्तपनः' संस्कृत वाक्यांश है। इसके प्राकृत रूप 'श्रो घणों' और 'उअधणो' होते हैं । इनमें से प्रथम रुप 'श्रो घणणे' में सूत्र-संख्या १-१७२ से श्रादि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'त' व्यञ्जन फे स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'श्रो' की प्राप्तिः द्वितीय शब्द 'घणो' में सूत्र-संख्खा १–२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ओषणो सिद्ध हो जाता है।