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* प्रियोदय हिन्दी व्यारूपा सहित #
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veertain: संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप लवगुग्गमा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'यो' का 'उ'; २७७ से 'दू' का लोपः २८६ से 'ग' को द्वित्व 'गत' की प्राप्ति; ३ २७ से स्त्री लिंग में प्रथमा विभक्ति और द्वितीया विभक्ति में 'जन्' और 'शस्' प्रत्ययों के स्थान पर वैकल्पिक पक्ष में प्राप्त प्रत्ययों का लोप होकर पुग्मा रूप सिद्ध हो जाता है ।
नुर्गुणः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चोग्गुणो और चउग्गुणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप चोग्गुणो में सूत्र संख्या १-१७९ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तु' व्यंजन के स्थान पर अर्थात् 'अतु' शब्दाश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'प्रो' की प्राप्ति २-७६ से 'र्' को लोप; २८६ से 'ग' को द्वित्व 'ग्ग्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'खो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चोग्गुणी रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप में बैंक होने से १-१७७ से '' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप चउग्गुणो भी सिद्ध हो जाता है।
चतुर्थः संस्कृत विशेष रूप है। इसके प्राकृत रूप चोत्थो और चउत्थो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तु' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अतु' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'श्री' की प्राप्तिः २०७६ से 'र' का लोप २८ से 'थ' को द्वित्व 'थ' की प्राप्ति २-६० से प्राप्त पूर्व 'धू' का 'त्' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप चोत्थो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप चत्यो में सूत्र संख्या ०-१७७ से 'तू' का लोप; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर उत्था रूप भी सिद्ध हो जाता है । :
चतुर्थी संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चोत्थी और चउथी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७१ से चादि स्वर 'ख' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तु' व्यन्जन के स्थान पर अर्थात् 'अ' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक से 'श्री' की प्राप्तिः २७६ से 'र' का लोप २-८६ से 'थ' को द्वित्व 'थ' की प्राप्तिः २-६० से प्राप्त पूर्व 'थ' का 'तू' और ३-३१ से संस्कृत मूल शब्द 'चतुर्थ'
के प्राकृत रूप चोत्य में स्त्रीलिंग वाचक स्थिति में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बोत्थी रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप चउत्थी में सूत्र संख्या १-१७७ से 'तू' का लोप और शेष सिद्ध प्रथम रूप के समान ही होकर चस्थ रूप भी सिद्ध हो जाता है।
संस्कृत विशेषण रूप हैं । इसके प्राकृत रूप चोरहो और उदहो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७१ से यादि पर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'सु' व्यन्जन के स्थान पर अर्थात 'ऋतु' शब्दशि के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्तिः २००६ से 'र' का लोप;